China And Nehru

चीन आक्रमण के समय दिनकर ने नेहरू को लेकर क्या लिखा?
चीनी आक्रमण के समय दिनकर बीमार थे और पटना में थे। जब वे दिल्ली पहुंचे थे तब तक  कृष्ण मेनन मंत्रिमंडल से जा  चुके थे तथा  जनरल कौल के हटाये जाने की चर्चाएं भी तेज थीं। ऐसे घनघोर संकट में भी संसद लगातार चलती रही।जब नेहरू संसद में जवाब देने  खड़े हुए, उनकी आवाज बहुत धीमी थी और उनका चेहरा मुरझाया हुआ था। इतना बड़ा नेता, इतना बड़ा आदमी और  राजनीति के अखाड़े में मजा हुआ कूटनीतिज्ञ संसद में अपने आप को असहाय पा रहा था। 

चीन के आक्रमण का गहरा सदमा उन्हें  लगा था। मगर एक चतुर पिता के समान वे इस व्यथा को अपने देश वासियों  से छिपाते रहे। भले वे संसद में यह बात  कहते रहे कि चीन के आक्रमण से  देश का अपमान नहीं हुआ है मगर इस अपमान के कड़वेपन को उन्होंने  खुद पी लिया था। यह उनकी कठिन अग्नि परीक्षा का काल था। अपमान का बदला हथियारों से  ही सम्भव था। हथियारों के लिए वे अमरीका और इंग्लैंड की मदद मांगने जरूर गए, परंतु यह चिन्ता उन्हें बराबर खोखला करती रही कि कहीं ऐसा न हो कि जिस स्वाधीनता की हिफाजत के लिए हम अमरीका और इंग्लैंड से सहायता ले रहे हैं, वह स्वाधीनता इसी सहायता से कमजोर होने लगे। 

दरअसल  वे एक ऊँचे आदमी  थे जो अपने देश को ऊँचाई से  नहीं उतरने देना चाहते थे।  लेकिन जैसा कि कहा जाता है कि  दुखान्त नाटक के असली पात्र  ऊंचे कद के पुण्यवान व्यक्ति ही होते हैं। पाप की पराजय पर जो नाटक लिखा जाता है, वह अन्ततः सुखान्त  ही होता है। सच्चे दुखान्त नाटक के पात्र पराजित ही इसलिए होते हैं कि वे पाप के रास्ते पर  नहीं चलना चाहते।

चीनी आक्रमण के बाद देश में नेहरू के खिलाफ जो जहर उगला जाने लगा, उनसे वे गहराई तक टूट गए। वे अपना दर्द यह कहकर  व्यक्त करने लगे कि मैं अपने देश का पशुकरण नहीं होने देना चाहता।  जब उन्होंने संसद में पशुकरण  नहीं होने देने की बात कही , दिनकर ने  उसके जवाब  'परशुराम की प्रतीक्षा' में संकलित कविता संसद में बोली-

अन्धकार को दबी रौशनी की धीमी ललकार,

 कठिन घड़ी में भी भारत के मन की धीर पुकार। 

सुनती हो नागिनी ! समझती हो इस स्वर को?

 देखा है क्या कहीं और भू पर उस नर को-

जिसे न चढ़ता ज़हर, न तो उन्माद कभी आता है,

 समर-भूमि में भी जो पशु होने से घबराता है?

नेहरू जिस ऊँचाई से अपनी वेदना व्यक्त कर रहे थे, उस ऊँचाई की  दिनकर ने प्रशंसा की ,  लेकिन उनका मत यह था कि पशुओं को उत्तर पशु की भाषा से ही दिया जा सकता है।

दिनकर जिस धर्म का प्रतिपादन कर रहे थे, वह कविधर्म था। नेहरू घनघोर संकट में भी परम धर्म पर अडिग थे। नेहरू उस हारी हुई ज्योति के प्रतीक थे, जो पराजित होकर भी अन्धकार को चुनौती दे रही थी ।

अक्टूबर, 1962 से लेकर मार्च, 1963 तक देश में उनके खिलाफ गुस्सा पूरे जोर पर था।  कटुता और व्यंग के बाण चारों ओर चल रहे थे, लोगों के गुस्से का ज्वालामुखी भड़क रहा था।  तब भी वे अविचलित और शान्त रहे। उन दिनों यह चर्चा जोर पकड़ने लगी कि नेहरू  का नेतृत्व समाप्त होने वाला है।  किन्तु, इस कठिन घड़ी में भी  वे धीर गंभीर बने रहे।इस समय जिस ऊँचे नेतृत्व का परिचय उन्होंने दिया, वैसा परिचय इतिहास में कभी किसी ने  नहीं देखा। 

दिनकर लिखते हैं कि जीत हमेशा सीमित होती है, उससे इतिहास को प्रकाश नहीं पहुँचता। इतिहास को रोशनी अक्सर उस आदमी से मिलती है, जो पुण्य की राह पर हार गया हो। कृष्ण और अशोक, कबीर और अकबर, गांधी और जवाहरलाल-ये पराजित पुण्य के प्रतीक थे।

देश के एक बड़े वरिष्ठ नेता उन  दिनों नेहरू जी से मुलाकात कर उन्हें  यह राय दी थी कि  भारत को अमरीका और ब्रिटेन के सुपुर्द हो जाना चाहिए जिससे वे हमारी चीन से  रक्षा कर सकें। नेहरू जी उनकी इस सलाह से चकित रह गए। 

नेहरू ने जवाब दिया कि  मैं पूरे होश-हवास के साथ इस मुसीबत का सामना कर रहा हूँ। लड़ाई से मैं नहीं डरता। हम हर मुसीबत से लड़ेंगे। चीन और पाकिस्तान अगर साथ हमले करेंगे, तो हम दोनों से एक साथ लड़ेंगे। हम हारने पर भी लड़ना नहीं छोड़ेंगे। 

आम राय यह है कि चीन ने नेहरू जी को अपने मैत्री के जाल में फँसा लिया था और नेहरू जी   चीन की असली चाल को पहचानने में गलती कर गए। मगर गलती पहचानने में नहीं हुई थी।

सन् 1959 ई. में संसद में विरोधियों ने  नेहरू से सवाल किया था कि चीन के विरुद्ध जो कदम आप आज उठा रहे हैं, वह कदम आपने सन् 1954 ई. में क्यों नहीं उठाया?

नेहरू जी ने उत्तर दिया, 'अगर यह कदम हमने सन् 1954 में उठाया होता, तो जो काम चीन ने जो आज किया है, वह काम वह सन् 1954 में ही कर गुजरता।'

लोकदेव नेहरू

Nehru and Secularism 
6 मई 2025

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