‘सेनुरा कऽ भाव चढ़ल बा, हे बाबा! माहुर मंगा दऽ…’
जब कवनो गीत, सामाजिक विद्रूपता के देखि के रचल जाला, तऽ ऊ खाली गीत नाहि रहि जाला। ऊ समय कऽ सनद बन जाला। पीढ़ि-दर-पीढ़ी आपन छाप भा असर छोड़ेला। ‘सेनुरा कऽ भाव चढ़ल बा’ अइसने गीत हऽ। अब्दुर्रहमान गेहूँवासागरी के रचल। उहाँ के दहेज जइसन सामाजिक बुराई के शिकारन के कारूणिक दशा के आवाज दिहले बानी। नतीजतन इ लोकगीत जस लोककंठ में बसल बा। एह में लोक संवेदना के बयानी बा। समाज के क्रूर सच्चाई भी उजागर भइल बा। आखिर कइसे दहेज के ओट में बेटियन के जिंदगी तबाह हो रहल बा? कइसे दहेज के नाम पऽ आजो कवनो बेटी, ‘दाहल’ जातिया? एगो बेटी कवने दर्द-पीड़ा-संताप से गुजरेले, ऊ एह गीत में मिली। एकर संवेदना, कथ्य, प्रतीक आ शिल्पगत प्रस्तुति बहुते मार्मिक बा। सुनवइया के करेजा के झकझोर देवे के कूबत भा ताकत एह गीत में बा। संगे-संगे दहेज प्रथा के खिलाफ एगो सशक्त विद्रोह भी दिखी। सामाजिक कुरीतियन पर चोट भी। एकरे साथे गीत के माध्यम बना के पितृसत्तात्मक व्यवस्था पर गंभीर सवाल उठावल गइल बा।
गीत के केंद्र में एगो बेटी बिया। बियाह खातिर उमिर हो गइल बा। बाकिर बाप, सुयोग्य वर के खोजत-खोजत थाकि गइल बा। निराश बा। हर जगह दहेज के मांग आड़े आवऽता। रोड़ा बनऽता। कहीं मोटरगाड़ी चाहीं, कहीं टीवी, कहीं नकद रुपया। बाप के बेबसी बढ़ऽता। करजा लेबे के सोचऽता। घर बेचे पऽ मजबूर हो जाता। बेटी, इ सब देख के टूट रहल बिया। जानऽतिया कि करजा के बोझ परिवार के अउर बदहाल करी। अंधा कुँआ में धकेल दिही। जहाँ से वापसी मुश्किल बा। सूद, मूलधन से कहीं बेसी हो जाई। अइसन आर्थिक जाल, उनका जिंदगी के निगल भा घोंट लेई। माई, एही चिंता में घुट रहल बाड़ी। बेटी इ सब देख रहल बिया।
‘सेनुरा’ (बियाह के पवित्र प्रतीक) अब बाजार के वस्तु बन गइल बा। एकर ‘भाव’ अतना चढ़ऽल बा कि बियाह के डोली अब ओकरे बदे दूर के सपना हो गइल बा। पकड़ भा काबू में नइखे। एहि हताशा में ऊ आपन बाबूजी से कहऽतिया, ‘माहुर मंगा दऽ’। ध्यान दिहीं इ ‘माहुर’ खाली जहरे भर नइखे। बलुक देहज लोभी समाज-व्यवस्था के प्रति तीव्र घृणा आ असहमति के प्रतीक भी बा। एही के चलते ओकरे जिनिगी पऽ खतरा आ गइल बा। जीव अफरा में पड़ल बा। ऊ इचिको जीये के नइखे चाहत। आखिर में ऊ कहऽतिया, ‘डोलिया बना दऽ, बाबूजी,’ बाकि इ डोली बियाह के नइखे, मउअत के बा। कांच बांस के बनल ‘डोली’ भा ‘खटोला’ भा ‘अर्थी’, आखिरी विदाई के प्रतीक बनऽता।
असल में इ गीत कवनो कल्पना से आवेशित हो के नइखे रचल गइल। एहिजा कल्पना के उड़ान नइखे। कवनो बनावटी कहानी नइखे। बस समाज के कटु आ कठोर सच्चाई बा। आखिर कइसे गरीबी भा दहेज के मांग, बेटियन के सपना के कुचल देले? गेहूँवासागरी जी इ गीत लिखके अपने समय के पीड़ा के दर्ज कइले बाड़न। ब्यान कइले बाड़न। हाँलाकि आजु तनिका हालात बदलल बा। फिर भी अबहिनो स्थिति ओतने गंभीर बा। एह से इ आजो ओतने प्रासंगिक बा। अपने दौर में इ गीत आकाशवाणी पर खूब बाजल। मक़बूलियत अइसन कि एके लोकगीत के दर्जा मिल गइल। लोक कंठ में बस गइल। बाकिर विडंबना देखीं। एकर रचयिता गेहूँवासागरी जी गुमनामी के अंधेरा में खो गइलन। आजो गोरखपुर में गुमनामी में रहत बाड़न। बीमार बाड़न। बूढ़ भऽ गइल बाड़न। उमर के एह पड़ाव पऽ शारीरिक आ मानसिक स्थिति कमजोर हो गइल बा। विस्मृति के शिकार बानी।
पर, गेहूँवासागरी जी के नाम, भोजपुरी साहित्य के इतिहास भा आलोचना के किताबन में कतुहूँ मिली नाहिं। हमरा जाने से जान-बूझ के उनका के वाजिब स्थान ना दिहल गइल। उनके रचना पर ना कवनो आलोचक के ध्यान गइल, ना साहित्यिक गोष्ठी भा सेमिनार में उनका पऽ चर्चा भइल। जहाँ तक हमार जानकारी बा कहीं स्कूली भा विश्विविद्यालयी सिलेबेस में उहाँ के रचना नइखे लागल।
बावजूद एह के उहाँ के इ रचना खूब लोकप्रिय भइल। आजु गैरखेमाबाज कवियन के शृंखला के 18वीं कड़ी में गेहूँवासागरी जी के एही गीत पऽ तनिका चर्चा होई। फिलहाल गीत देखीं—
‘सेनुरा कऽ भाव चढ़ल बा, हे बाबा! माहुर मंगा दऽ
डोलिया कऽ दाम बढ़ल बा, हे बाबा! माहुर मंगा दऽ
सेनुरा बदे, जनि करजा कढ़ावऽ,
सेनुरा बदे, जनि घर बेचवावऽ,
जिनगी का भाव घटल बा,
हे बाबा। माहुर मंगा दऽ
सेनुरा कऽ भाव चढ़ल बा,
हे बाबा ! माहुर मंगा दऽ...
करजा लियाई, भरा नऽ पाई,
मुर्हवा से जादे सूद चढ़ि जाई,
फिकिरा के माई, मरल बा,
हे बाबा! माहुर मंगा दऽ
सेनुरा का भाव चढ़ल बा,
हे बाबा! माहुर मंगा दऽ ...
मोल भाव बिन, केहू बोली नाहीं,
केहू कही मोटर, केहू टीवी चाहीं,
दुलहा बिकाऊ भइल बा,
हे बाबा! माहुर मंगा दऽ
सेनुरा कऽ भाव चढ़ल बा,
हे बाबा! माहुर मंगा दऽ...
चगड़ कहे-‘हमके कछु ना चाहीं',
कुछ कम मिली तऽ बिटिया के दाही,
जे ना पढ़ल, ऊ कढ़ल बा,
हे बाबा! माहुर मंगा दऽ
सेनुरा कऽ भाव चढ़ल बा,
हे बाबा! माहुर मंगा दऽ...
डोलिया बना दऽ, डोलिया चढ़ा दऽ,
हंसि-हंसि बिटिया के घाटे लगा दऽ,
हरियर बांस, हंसल बा,
हे बाबा! माहुर मंगा दऽ...’
गीत के केंद्रबिंदु में ‘सेनुर’ बा। सिन्दूर, भारतीय संस्कृति में सुहाग, सामाजिक स्वीकार्यता आ जिनिगी के नयकी शुरुआत के प्रतीक हऽ। बाकि एह गीत में ‘सेनुर’ अइसन प्रतीक भा चीझु (वस्तु) बन गइल बा, जेकर कीमत ‘बाजार’ तय करऽता। मोटरगाड़ी, टीवी, नकद रुपया, इ सब अब सेनुरा के ‘भाव’ तय करऽता। इ विडंबना गीत के शिल्प में बहुत महीनी से उभरऽता। खाली कहानी भर नइखे रहि जात, बलुक एह सामाजिक रोग के गंभीरता भी देखावऽता। बेटियन के जिनिगी, दहेज में मिलल वस्तु भा समान के कीमत से तौलाता। असल में गीत के मुखड़ा एही दर्द के करुण स्वर में व्यक्त करऽता—
‘सेनुरा कऽ भाव चढ़ल बा, हे बाबा! माहुर मंगा दऽ
डोलिया कऽ दाम बढ़ल बा, हे बाबा! माहुर मंगा दऽ’
एह पंक्तियन में समाज के ओही क्रूर व्यवस्था के खिलाफ चीख बा, जहवाँ बियाह जइसन पवित्र बंधन बाजार के बोली में बदल गइल बा। ‘डोलिया’ एहिजा एगो बहुआयामी बिंब बनऽता। एक ओर इ बियाह के डोली भी बा, जवन बेटी के सपना के प्रतीक बा, दूसरे ओर इ अर्थी भी, जवन उनका हताशा आ मउवत के ओर इशारा करऽता। एहिजा एके साथे उत्सव आ शोक के दूनो के दृश्य उभरऽता।
ओहिजे के भाव भूमि आ गीत के भाषा भोजपुरी के माटी से उपजल बा। लोक लय आ संवेदना के समेटले बा। ‘माहुर’, ‘करजा’, ‘मुर्हवा’, ‘हरियर बांस’ जइसन शब्द महज शब्द नइखे, बलुक एगो पूरा सांस्कृतिक आ सामाजिक परिदृश्य के जीवंत करऽता। ‘माहुर’ एहिजा खाली जहरे नइखे, ऊ सामाजिक विष (दहेज) के प्रतीक बा। ‘करजा’ आ ‘मुर्हवा’ के बात कऽके गेहूँवासागरी जी, पूँजीवादी, देहजलोभी सत्ता-समाज-व्यवस्था पर प्रहार कइले बाड़न, जे करजा आ ब्याज के जाल में गरीब परिवारन के जकड़ लेले।
गीत के एगो अउर सशक्त पंक्ति बा—
‘दुलहा बिकाऊ भइल बा, हे बाबा! माहुर मंगा दऽ’
एहिजा पितृसत्तात्मक समाज के सच्चाई के उजागर होता। जहां वर अब ‘वर’ नइखे, बलुक बिकाऊ माल हो गइल बा। ओकरो ‘बोली’ लागत बा। जे अधिका देहज दिही। उहे दुल्हा किनी। एहिजा दहेज प्रथा पर पुरहर कटाक्ष बा। संगे-संगे समूचा बियाह संस्था पर भी सवाल उठऽता। गीतकार एहिजा समाज के दोहरा चरित्र के बेनकाब करे के कोशिश कइले बाड़न। एक ओर तऽ ऊ बेटियन के बोझ मानेला आ दोसरे ओर वर के कीमत लगाके बेचेला। इ लाइन समाज के संवेदनहीनता के बतावऽता।
ओहिजे एह गीत के खासियत महज एकरे कथ्य में नइखे। एकर अनुभूतिपरक संरचना में भी बा। ‘बाबा’, ‘माई’, ‘बिटिया’, ‘घाट’, ‘हरियर बांस’ जइसन बिंब एगो जीवन-जाल रचऽता। इ सुनवइया के दिल के झकझोरऽता। खासकर ‘हरियर बांस, हंसल बा’ वाली पंक्ति में गीतकार सामाजिक विद्रूपता के गहिराह चित्र खिंचले बाड़न। हरियर बांस, परंपरागत रूप से बियाह के मंडप भा माड़ो के प्रतीक हऽ। मांगलिक उत्सव के प्रतीक भी। बाकिर एहिजा मृत्यु के संवाहक बनऽता। इ बिंब खाली चकिते नइखे करऽता, बलुक पितृसत्तात्मक समाज के क्रूर रूप के भी उजागर करऽता। एकरे चलते बेटियन के जिंदगी से जुड़ल सबसे बड़ उत्सव (बियाह), मृत्यु के त्रासदी में बदल जाले।
एह के रउआ ध्यान से देखब तऽ महसूस होई। एह गीत में बेटी के अपने बाप से बातचीत भर नइखे, बलुक समाज आ व्यवस्था पर एगो आरोप-पत्र भी बा। ऊ कवनो खेमा में नइखे। ना वाम के, ना दक्षिण के। ऊ खाली जिंदगी के पक्षधर बिया। इ गीत नारी-विमर्श के ओही जमीन पर खड़ा बा, जहवाँ ना कवनो वैचारिक शोर बा, ना सिद्धांतन के पाखंड। एहिजा खाली एगो बेटी के मांग में सेनुर ना भर पावे के दुख भर नइखे। एह दुख के परिणति ‘माहुर’ हो जाता। इ गीत महज एगो बेटी के जिनिगी आ समाज से हार के कहानी भर नइखे, व्यवस्था के खिलाफ असहमति बा। प्रतिकार भी बा।
असल में गेहूँवासागरी जी के इ रचना, उहाँ के सांस्कृतिक आ सामाजिक चेतना के प्रमाण बा। बियाह जइसन पवित्र बंधन के बाजार के बोली में बदलत देख के असीम पीड़ा से गुजरल बाड़न। फिर आपन कलम से ओही दर्द के शब्द में ढलले बाड़न। उतरलें बाड़न। हालाँकि उहाँ के गुमनामी भोजपुरी साहित्य आ समाज खातिर एगो त्रासदी बा। आजे कहीं पढ़े के मिलल हऽ कि भोजपुरी कविता के इतिहास में ओइसने रचना के स्थान दिहल गइल बा, जवना से भोजपुरी के इचिको भला होखे। हम हैरान बानी। आखिर अइसन पावरफुल, विमर्श, चेतना से भरल-पुरल रचना, भोजपुरी खातिर कवनो भलाई के साधन कइसे नइखे बन पावत? आलोचक, समालोचक भा इतिहासकार के नजरी में। आखिर काहें एके ‘इग्नोर’ कइल गइल बा। साँच कही तऽ इ अइसन धरोहर बा, जे अपना समय आ समकाल के सीमा के लाँघत बिया। आज के समय में भी ओतने प्रासंगिक बा। इ गीत महज काव्य रचना भर नइखे। बलुक एगो तहरीर बा। एगो एफआईआर बा। दहेज लोभी समाज आ पितृसत्तात्मक व्यवस्था के खिलाफ दर्ज भइल बा। इ आत्मकथ्य नइखे, बलुक सामूहिक कथा-व्यथा बा। हर ओइसना बेटी के कहानी, जेकर सपना दहेज के भेंट चढ़ गइल।
आजु के समाज, सतही आ दिखावटी विमर्शन में उलझल बा। बाकिर इ गीत अपने माध्यम से स्त्री चेतना, मनोभाव के विमर्श के रूप में स्थापित करऽतिया। ओही रूप में सोझा आवऽतिया, जवन लोक के रक्तधारा से उपजल बा। इ गीत एगो गीत भर नइखे, बलुक एगो आह्वान बा, समाजिक बदलाव बदे। इ गीत के मूल स्वर कारुणिक बा। बाकिर ऊ प्रतिरोध के रूप भी बन गइल बा। असल में माहुर के माँग, पितृसत्तात्मक व्यवस्था आ दहेजलोभियन के मुँह पऽ एगो जोरदार तमाचा बा। दहेज जइसन सामाजिक संत्रास के ‘अर्थी’ तक पहुँचा देवे के मुकम्मल कोशिश बा। सेनुरा कऽ भाव चढ़ल बा’ लोकोन्मुखी रचना हऽ। गेहूँवासागरी जी के इ गीत हमनी के सच्चाई से रूबरू करावऽता। दहेज के खिलाफत या मुख़ालिफ़त में अइसन पुरज़ोर तरीका से दोसर गीत में अबहिन ले बात नइखे भइल। बाकिर अब बात होखे के चाहीं। ताकि दहेज जइसन सामाजिक अभिशाप पऽ लगाम लागे। दहेज के खिलाफत ख़ाली पोस्टर भा नारा तक न रहे। घर-परिवार आ समाज में दहेज के माँग के हतोत्साहित करे के प्रयास होखे। असल में दहेज प्रथा, सामाजिक बुराई हऽ। एक्के के खत्म करे बदे खाली कानूनी उपाय पर्याप्त नइखे। समाज के हर व्यक्ति में जागरूकता आ संवेदनशीलता पैदा कइल जरूरी बा। अइसने में गेहूँवासगरी जी के इ गीत सक्षम भा समर्थ बा।