Rahi ji Poet

एगो रोटी बदे बचवन में मार हो गइल

तारकेश्वर मिश्र ‘राही’, भोजपुरी के अनूठा गीतकार के नाम हऽ। ‘लव-कुश’ जइसन खंड काव्य उहाँ के लिखले बानी। कवनों प्रसंग पऽ, छंद आ बिरहा लिखे में उहाँ के महारत हासिल बा। रेडिओ से लेके काव्य मंचन तक, उहाँ के दमदार उपस्थिति रहल बा। एक से बढ़ि के एक नमूना गीत उहाँ के रचले बानी। भजन से लेके शृंगारिक गीत तक। बाकिर भोजपुरी के साहित्यिक इतिहास आ समालोचना के पन्नन में उहाँ के अनुपस्थिति सवाल खड़ा करऽता। साहित्य इतिहासकार-समालोचक लोग के कृपादृष्टि से, राही जी वंचित रहल बानी। उहाँ के लिखल रचना, छंद, प्रसंग व्यासपीठ पऽ कथावाचक लोग आजो गावेला। भरत शर्मा व्यास, गोपाल राय, मदन राय, मनोज तिवारी जइसन गायक लोग ‘राही’ जी के गीत गावऽल। आजो गावऽता। बाकिर ‘राही’ जी के वर्तमान अवस्था भा स्थिति के ओर केहु ध्याने नइखे। बीमारी आ गुमनामी दूनों के दंश राही जी चुपचाप झेलत बाड़न। आजु गैरखेमाबाज कवियन के शृंखला के 19वीं कड़ी में ‘राही’ जी के एगो गीत पऽ बात होई। 'राही' जी के इ गीत भोजपुरी साहित्य में आपन संवेदनशीलता आ यथार्थ के चित्रण खातिर विचारणीय बा। उनकर  एह गीत के शीर्षक हऽ, ‘रोटी’। गरीबी आ जीवन संघर्ष एहि के केंद्र में बा। देश के आजादी के बाद के विडंबना के रेखांकित भइल बा। अंग्रेज तऽ चली गइले, बाकिर भ्रष्टाचार आ देशी शासकन के लूट सुराज के बोझ बना दिहलस। काव्य नायक अइसने माहौल में अपना पूरा जिनिगी के रीविजिट करऽता। फिलहाल रउआ गीत के तनिका देखीं—
'सगरी जिनगिये बेकार हो गइल 
एगो रोटी बदे बचवन में मार हो गइल। 

कवनी धीरिजवा से जिनगी बिताई 
कवनी कमइया पर असरा लगाई, 
जंगरा पेरत इ उमिरिया बितवली 
केतना बिपत सहिके लरिका जियवली 
पेटवे भरलका पहार हो गइल।
 एगो...

जड़वा क रतिया मों कइसे बिताई 
कइसे निखहरे मों लरिका सुताई, 
उखिया की रसवा पर दिन बीति गइले 
घुमते फिरत में सुरूज डूबि गइले, 
खरची खोजत में अन्हार हो गइल। 
एगो...

झंख मारि रतिया में भइलें उपसवा, 
कांपेले ललन जब सिहिके बतसवा 
पुअरा पहलिया पर सबके सुतवली 
लरिकन के माई उपरां अंचरा ओढ़वली 
तोपें मुंहवा त गोड़वा उघार हो गइल। 
एगो...

चिहुकि-चिहुकि उठें जाड़ा से ललनवा 
दुख ना सहाय बालुक निकसित परनवां 
सुनालां की देश में सुराज होई गइले 
घरवा के चोर अंगरेज नांही गइलें 
देश के आजादी सिर पर भार हो गइल। 
एगो रोटी...'

एगो रोटी जुटावे ना पावे के कसक एह गीत के मूल स्वर बा। कविता के शुरुआत एही से होता। जवन बहुते प्रभावशाली बा—

‘सगरी जिनिगये बेकार हो एगो गइल 
एगो रोटी बदे बचवन में मार हो गइल’

एह पंक्ति में कविता के केंद्रीय भाव जाहिर होता। काव्य नायक के मय जिनिगी व्यर्थे बीतल। रोटी जइसन मूलभूत आवश्यकता भी पूरा नइखे होत। एगो रोटी भी दुभर बा। एहिजा खाली व्यक्तिगत असमर्थता के चित्रण नइखे। सामाजिक व्यवस्था के ओर भी इशारा बा। जवन एह असमर्थता के जन्म देला। कविता के संरचना में हर छंद के अंत में ‘एगो रोटी बदे…’ के दोहराव, लोकगीत जस लय उत्पन्न करऽता। पाठक भा श्रोता के एह दर्द के साथ जोड़ले राखऽता। इ प्रयोग कविता के ओहि परिवेश से जोड़ले राखता, जहवाँ ई अनुभव जनमल।कविता में अनुभूति के तत्व सबसे पहिले ध्यान खींचऽता—

‘कवनी धीरिजवा से जिनगी बिताई 
कवनी कमइया पर असरा लगाई’

आखिर जिनिगी कवने धीरज पऽ बीतावल जाई, कवने कमाई के आसरे इ जिनिगी पार लागी? जीवन के उहे धैर्यहीनता आ आशा के टूटन एहिजा व्यक्त भइल बा, जवन तमाम मेहनत के बावजूद उचित मेहनताना ना देला। इहाँ व्यक्तिगत अनुभव एगो अइसन तीव्रता के साथ सोझा आवऽता कि पाठक ओह भूख, ओह थकान के अपने भीतर महसूस कर सकेला। 

‘जंगरा पेरत इ उमिरिया बितवली 
केतना बिपत सहिके लरिका जियवली’ 

एह लाइन में जीवन के कठिनाई आ बचवन के पाले-पोसे के संघर्ष सोझा आवऽता। पेट भरल मुश्किल हो गइल बा। इ अनुभूति खाली ‘राही’ जी के नइखे, बलुक ओह पूरा वर्ग के बा, जवन अइसन परिस्थितियन में जीयेला। अइसने में जीवन के रोजमर्रा के जद्दोजहद उजागर हो रहल बा। इ परिवेश कविता के एगो ठोस आधार देता। जवन एके काल्पनिक ना, बलुक जीवंत बनावऽता आ यथार्थ से जोड़ता।

‘जड़वा क रतिया मों कइसे बिताई 
कइसे निखहरे मों लरिका सुताई, 
उखिया की रसवा पर दिन बीति गइले 
घुमते फिरत में सुरूज डूबि गइले, 
खरची खोजत में अन्हार हो गइल’

राही जी एह कविता के ‘70 के दशक में लिखले रहलन। बाकिर समकालीन संदर्भ में इ कविता आजो ओतने प्रासंगिक बा, जेतने रचना के समय रहल होई। गरीब खातिर सबसे दुखदायी मौसम, जाड़ा के होखेला। ‘पूस की रात में’ रउआ एकरा के महसूस कइले होखबऽ। ‘हरखु’ के जवन दुख बा, राही जी के काव्य नायक भी ओही पीड़ा से गुजरता। जाड़ पड़ऽता। जाड़ से बचे खातिर कवनो ‘जोगाड़’ भा सरजाम नइखे। कंबल, दुशाला, तोसक, रजाई, मिरजई कुछो के इंतजाम नइखे। अइसने में जाड़ा के राति कइसे बीती? आखिर कइसे लइका के निखहरे सुतावल जाई? भर पेट भोजन नइखे मिलऽत। किसान-मजूर मनई बा। उँखी (गन्ना) के रस पी के जिनिगी केतना दिन कटी? रोटी के चक्कर में सुबह से शाम तक हो गइल। सुरुज डूबऽता। बाकिर खरची नइखे जुटल। तबले अन्हार हो गइल। रउआ अइसन मनई के मनोभाव आ चिंता-फिकिर महसूस कर के तनिका देखीं—

‘झंख मारि रतिया में भइलें उपसवा, 
कांपेले ललन जब सिहिके बतसवा 
पुअरा पहलिया पर सबके सुतवली 
लरिकन के माई उपरां अंचरा ओढ़वली 
तोपें मुंहवा त गोड़वा उघार हो गइल’ 

थकि-हारि के उ घरे आवऽता। राति उपासे बीतऽता। पुअरा के बिछावन पऽ पूरा परिवार सूतऽता। ओढे खातिर कुछ नइखे। जाड़ा के बयार, कटार जइसे बेधेले। बयार बहऽतिया। लइका काँपऽता। लइका के माई, आपन आँचर ओढ़ावऽतिया। मुँह तोपतिया, गोड़ उघार हो जाता—

‘चिहुकि-चिहुकि उठें जाड़ा से ललनवा 
दुखना सहाय बालुक निकसित परनवां 
सुनालां की देश में सुराज होई गइले 
घरवा के चोर अंगरेज नांही गइलें
देश के आजादी सिर पर भार हो गइल’

अइसना में लइका चिहुंक के उठऽता। आखिर आँचर ओढ़ले से जाड़ कइसे कटि? अइसन दुख, देखि के काव्य नायक के ‘पराने’ निकसित बा। उ सोचता, सुनले बानी कि देश में सुराज आ गइल बा। सुराज के नाम पऽ तरह-तरह के सपना दिखावल गइल। बाकिर उ दिवास्वप्न ही साबित भइल। गरीबी मिटावे के बाति, ‘नारा’ तक ही रहि गइल। जमीनी हालात नाहि बदलल। एहिजा आजादी के बाद के उहे स्थिति रेखांकित भइल। औपनिवेशिक शासकन के स्थान स्वदेशी शोषक ले लिहले बाड़न। भ्रष्टाचार आ गरीबी आजो सबसे बड़ मुद्दा बा। आ कवि एहि सच्चाई के साहस के साथ सोझा लेआवता। सुराज के भार बन गइल, अपने आप में मुकम्मल व्यंग्य बा। व्यवस्था के विफलता उजागर होता। कविता एहि मायने में अपने समकाल के सीमा लांघतिया। एगो कालखंड के बात नइखे करत, हर ओह दौर के बात करऽतिया, जहाँ शोषण आ असमानता मौजूद बा।

ओहिजे बिम्बन के बात करीं तऽ कविता में एकर प्रयोग बहुते प्रभावशाली बा। ‘जंगरा पेरत इ उमिरिया बितवली’ में ‘जांगर’ एगो अइसन वितान खिंचता, जहाँ कोल्हु में जोतल बैल नाही, मनई दिही। उ कोल्हु में अपने पुरुषार्थ, मेहनत के पेरऽता। खून-पसीना एक करऽता। बाकिर ओकर हालात नइखे बदलत। मेहनत के बादो जिनिगी बहुते कठिनाई से भरल बिया। जांगर के पेराई आसान नइखे। इ कठिन जीवन के प्रतीक बन गइल बा। ‘पेटवे भरलका पहार हो गइल’ में पेट भरल के पहाड़ जइसन बतावऽल, भूख के ओहि तीव्रता के व्यक्त करऽता, जवन शारीरिक से बेसी मानसिक बोझ बन जाला। ‘उखिया की रसवा पर दिन बीति गइले’ में गन्ना के रस के सहारे दिन के बीतावे के प्रतीकात्मकता के बस महसूसल जा सकत। ‘घुमते फिरत में सुरूज डूबि गइले’ में सूरज के डूबल, खाली दिन के अंत के ना, बलुक जीवन के आशा के खतम होखे के भी संकेत देता। इ बिम्ब कविता के बाइस्कोप जइसन बनावऽता। भावना के ठोस रूप देता।

शिल्प आ शैली के नजरिया से इ कविता, भोजपुरी लोकगीतन के परंपरा से जुड़ऽतिया। लाचारी गीत। भाषा के सहज बहाव आ छंदन के लय एके गावे लायक बनावऽता। ‘एगो रोटी बदे बचवन में मार हो गइल’ के बार-बार दोहराव खाली लये भर नइखे बनावत, बलुक ओह दर्द से भी सराबोर करऽता, जवन एह कविता के असली स्वर बा। ‘राही’ जी, लोकभाषा के मिठास आ ताकत के पुरहर इस्तेमाल कइले बाड़े। अइसन रचना रचले बाड़न, जवन साहित्यिक होखे के साथे-साथ लोकप्रिय भी भइल। संगे-संगे ओह लोगन से जुड़ल, जेकर खातिर इ लिखल गइल।

अब तनिका एह रचना के भाव पक्ष के देखीं। एह नजरिया से कविता में दुख आ जीवन संघर्ष के असर दिखायी दिही। इ एके अउर संवेदनशील बनावऽता। एहिजा भावना निजी अनुभव से शुरू होके समाज के सच्चाई तक पहुँचऽतिया।

कविता के भीतरी हिस्सा ‘राही’ जी के अपने अनुभव से बनल बा। काव्य नायक के दर्द, ओकर लाचारी, आ बचवन खातिर ओकर फिकर एगो अइसन दुनिया बनावऽतिया, जवन कवि के मन से निकलल बा। ‘चिहुकि-चिहुकि उठें जाड़ा से ललनवा / दुख ना सहाय बालुक निकसित परनवां’ जइसन लाइन कवि के ओहि पीड़ा के सोझा लावऽतिया, जवन बचवन के तकलीफ देखके अउर गहिरा जाता। ओहिजे कविता के भीतरी पक्ष एकरा के अइसन आकार देता, जवन पाठक के दिल के छूअता। दोसरे ओर, बाहरी हिस्सा समाज के असल हकीकत के सोझा लावऽता, जवन एह दर्द के मूल वजह बा। ‘सुनालां की देश में सुराज होई गइले / घरवा के चोर अंगरेज नांही गइलें’ एहिजा ‘राही’ जी व्यवस्था पऽ व्यंग्यात्मक टिप्पणी कइले बाड़न। इ बाहरी दृश्य कविता के समाज से जोड़ऽता। संगे-संगे एके निजी शिकायत से ऊपर उठावऽता। 

असल में ‘राही’ जी के इ कविता महाकवि निराला के कविता से कुछ मायने में मिलत-जुलत बा। निराला के ‘तोड़ती पत्थर’ में भी गरीबी आ मेहनत करेवाला के जीवन के चित्र बा। जहाँ संघर्ष एगो बड़हन हिस्सा बा। ‘राही’ जी के काव्य नायक भी ओही तरे के जद्दोजहद में जुटल बा। बाकिर भोजपुरी भाषा आ गाँव के माहौल एके अलग पहचान देता। एही तरह मुक्तिबोध के कविता में भी समाज के सच्चाई आ निजी संवेदना के मेल दिखेला। जइसे ‘अंधेरे में’ में। ‘राही’ जी के कविता में भी इ मेल दिखी। पर, इहवाँ लोकभाषा आ लोकगीत के शैली एके खास बनावऽता। हालाँकि अइसन तुलना करे के पाछे हमार उद्देश्य कविता के साहित्यिक सामर्थ्य के समझावे खातिर बा।

ओही तरे कविता के खासियत एकर कई बातन में छिपल बा। बिम्बन के ताकतवर प्रयोग एके याद रखे जोग बनावऽता। कविता के संदेश भी एके खास बनावऽता। एहिजा खाली नीजी पीड़ा भर नइखे बलुक समाज से सवाल भी बाऽ? आखिर आजादी के बाद भी इ हाल काहें बा? इ सवाल कवि के ओकरे सामाजिक भूमिका से जुड़ाव के बतावऽता।

ओहिजे ‘राही’ जी के इ रचना भोजपुरी साहित्य में एगो अनोखा जगह राखऽतिया। हैरानी के बात बा कि अतना संवेदनशील आ असरदार रचना के बाद भी साहित्यिक इतिहास में एकर जिकर ना मिलेला। कविता में निजी आ समाजी जिनिगा के अइसन तालमेल बा, जवन कवनो भी बड़ रचना के निशानी होखेला। कविता हमनी के सोचे पर मजबूर करऽतिया। ‘राही’ जी के अनदेखी के बारे में ना, बलुक ओह समाज के बारे में भी, जेकर सच एहिजा मुखरित भइल बा। एह लिहाज से इ कविता साहित्यिक मापदंड पर खरा उतरऽतिया। भाषा, शिल्प आ भाव के अइसन मेल मिली, जवन एके साहित्यिक मान्यता के हकदार बनावऽतिया।

बस आखिर में इहे कहल उचित बा कि ‘राही’ जी के इ गीत मुकम्मल आवाज बा। ओह लोगन के आवाज, जिनके जिनिगी में खाली अभाव के ही डेरा बा। ओह समाज के आवाज, जवन एह कमी के नजरअंदाज करऽता। इ हमनी के याद दिलावऽता कि साहित्य के काम खाली सिंगारे आ सुंदरते में डूबल ना हऽ बलुक सच के सोझा लावऽलो हऽ। भोजपुरी साहित्य के समृद्ध करे वाली एह रचना के उहे जगह मिले के चाहीं, जवने के इ असल मायने में हकदार बा। राही जी के इ रचना अपने समय से आगे बढ़त हर दौर में प्रासंगिक रही।

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