लार्ड माउंटबेटन की जिंदगी का सबसे कठिन पल था महात्मा गांधी से मुलाकात
भारत के अंतिम वायसराय लार्ड माउंटबेटन जब अपनी योजना लेकर दिल्ली पहुंचे तो वे अपने साथ एक दबा हुआ गम भी लेकर आये थे। उन्हें सबसे ज्यादा डर इस बात का था कि वे गांधीजी से किन शब्दों में और कैसे भारत विभाजन की योजना रखेंगे? माउंटबेटन की पुत्री पामेला माउंटबेटन ने अपनी पुस्तक '' द माउंटबेटन पेपर्स '' में लिखा है कि मेरे पिता जब यॉर्क विमान से लंदन से दिल्ली की उड़ान भर रहे थे तो वे जानते थे कि वे इंग्लैंड सरकार के एक पेशेवर सिपाही हैं और उनका मुकाबला उस आधी धोती पहनने वाले व्यक्ति से होना था जो 1931 में पूरे इंग्लैंड के जनमानस को झकझोर कर गये थे।
मेरे पिता ने भारत आने के तत्काल बाद अंग्रेज सरकार की योजना के अनुरूप बड़ी चतुराई से कांग्रेस के नेताओं को अपने निकट लाने की कोशिश की थी और उन्हें बड़ा अजीब लगा कि कुछेक नेताओं को छोड़कर लगभग सभी नेता मेरे पिता से यह चाहते थे कि वे उनकी तरफ से गांधी से टक्कर लें। लेकिन मेरे पिता ने ऐसा कुछ नहीं किया क्योंकि वे जानते थे कि इन नेताओं की हैसियत का समग्र योग भी गांधी के घुटनों तक नहीं पहुँच सकता था। कांग्रेस के चार आने के लाखों लाख सदस्य उनकी पूजा करते थे और उनकी मुट्ठी में थे।
गांधी शांति प्रतिष्ठान के अध्यक्ष कुमार प्रशांत कहते हैं कि 3 जून 1947 को वाइसराय लार्ड माउंटबेटन ने भारत विभाजन की योजना प्रस्तुत की जिसे माउन्टबेटन योजना कहते हैं। कांग्रेस ने विभाजन के इस प्रस्ताव पर सहमति दे दी है। उसका मसौदा तैयार चुका है। कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में मौलाना आजाद , मुस्लिम लीग के अध्यक्ष के रूप में जिन्ना और वाइसराय के रूप में माउंटबेटन के हस्ताक्षर हैं । इस मसौदे की एक कॉपी गांधीजी के पास शाम को उस समय पहुंची जब वे दिल्ली की दलित बस्ती में टहलने के बाद गरम पानी में अपने पांव सेक रहे थे। बापू ने उस कागज को मोड़कर लालटेन के नीचे रख दिया है। अचानक मौलाना आजाद बापू के पास पहुंचते हैं। गांधी पूछते हैं ''क्यों मौलाना सुन रहा हूँ कि तुम लोगों ने सब बातें तय कर ली हैं।'' मौलाना कहते हैं किसने कहा आपसे? आप बापू ऐसा सोच कैसे सकते हैं ? हम लोग आपसे बगैर पूछे एक कदम भी बढ़ते हैं क्या?
अगर किसी को कुछ करना था तो इतना ही कि लालटेन के नीचे रखे कागज को खींचकर मौलाना के हाथ में दे देना था। जिसमें मौलाना आजाद के भी कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में हस्ताक्षर थे।
लेकिन गांधीजी ने ऐसा नहीं किया। गांधीजी बहुत बड़े आदमी थे। दुनिया उन्हें राष्ट्रपिता यूं ही नहीं कहती। एक पिता बनना ही बहुत कठिन काम है राष्ट्रपिता बनना तो बहुत ही कठिन काम है। करोड़ों करोड़ लोग और उनकी आकांक्षाएं, उनकी अपनी आशा और विश्वास उन सब का बोझ जो ढो सके, उन सबके दिए घावों को जो बर्दाश्त कर सके, जो अपने आंसूओं को खुद पी सके वही राष्ट्रपिता बन सकता है। गांधी राष्ट्रपिता थे इसीलिए उन्होंने लालटेन के नीचे रखे कागज के टुकड़े को मौलाना को नहीं दिया। क्योंकि मौलाना की इज्जत को संभालने का जिम्मा भी राष्ट्रपिता का था।
अकबर इलाहाबादी का शेर है-
मुस्ते खाक हैं मगर आंधी के साथ हैं।
बुद्ध मिया भी हजरते गांधी के साथ हैं।
मुस्ते खाक मतलब एक मुट्ठी धूल जब आंधी में उड़ती है तो बहुत ऊंची पहुंच जाती है। हम जितने भी बुद्ध मिया थे वे गांधी की आंधी में बड़े होकर ऊंचे पहुंच गए। जहां गांधी की आंधी गिरी हम सब ओंधे मुंह गिरे।
4 जून को वायसराय अपने दूत को भेजकर गांधीजी से मिलने की इच्छा प्रकट करते हैं। शाम 6 बजे महात्मा गांधी वाइसराय के अध्ययन कक्ष में प्रवेश करते हैं। माउंटबेटन गांधी को देखते ही समझ गए कि वे कितने परेशान व व्याकुल हैं। ऐसी मनोदशा में गांधीजी कुछ भी कर सकते हैं। अगर गांधीजी ने खुलेआम इस विभाजन की योजना की निंदा की तो देश में तबाही मच जाएगी।
गांधीजी से अपनी मुलाकात को महत्वपूर्ण बनाने के लिए माउंटबेटन अपनी पत्नी, अपने सहायक अफसर और वाइसराय भवन के स्टाफ सहित मौजूद थे। गोरे चिट्टे खूबसूरत माउंटबेटन जिसके कसरती शरीर के अंग अंग से फुर्ती निकल रही थी एक कुर्सी पर बैठे थे और उनके सामने की कुर्सी पर आधी धोती पहने एक दुबला पतला सा ढांचा, एक पेशेवर अंग्रेज सिपाही दूसरा अहिंसा का पुजारी, एक रईसों का रईस और दूसरा कंगालों जैसी जिंदगी गुजारने वाला ऐसा व्यक्ति जिसे आधी दुनिया राष्ट्रपिता कहती थी, एक चमकता दमकता सूटेड बूटेड अंग्रेज वाइसराय दूसरा एक कृषकाय मसीहा जो सारे तामझाम से दूर रहता था।
लेकिन फिर भी दोनों में बुनियादी अंतर था बापू के चेहरे से सादगी, ईमानदारी और भलमनसाहत की शीतल किरणें निरंतर फूटती रहती थीं जिसके कारण उनका चेहरा निहायत ही प्यारा दिखता था। उनकी इंसानियत, उनकी जिद, उनकी स्नेहिल आंखों को व्यक्त करने की अलौकिक क्षमता, उनकी नारी सुलभ स्नेहशीलता के कारण उनके चेहरे पर सौंदर्य का सागर लहराता था।
माउंटबेटन की पुत्री पामेला ने 'द माउंटबेटन पेपर' में लिखा है कि पहली मुलाकात में मेरे पिता ने गांधीजी के चेहरे से निकलने वाली शीतलता की रेडियो धर्मिता को पहचान लिया था और मेरे पिता का आजाद भारत में क्या भविष्य होगा वह फैसला इसी कृषकाय मसीहा को करना था।
माउंटबेटन भी पूरी तैयारी के साथ बैठे थे। गांधीजी के आने के पहले उनका मष्तिष्क जितनी दलीलें सोच सकता था उन सभी के प्रयोग वाइसराय ने अपने सामने आराम कुर्सी पर बैठे कृषकाय मसीहा के समक्ष रखे।
वाइसराय ने गांधीजी से बातचीत शुरू करते हुए कहा कि ''महात्मा जी आपने भारत की एकता के लिए जीवनभर काम किया है। अब उस एकता की योजना को नष्ट होते देखकर आपको जो पीड़ा हो रही है और जो भावनाएं पैदा हो रही हैं, उनसे मैं अच्छी तरह वाकिफ हूँ, क्योंकि ऐसी ही भावना मेरे स्वयं के दिल में भी है।
माउंटबेटन से मुलाकात के दिन बापू का मौनव्रत था। बापू ने माउंटबेटन को मौनव्रत में अपनी धोती की तह में से मैले इस्तेमाल किये गए लिफाफों पर पेंसिल के दो इंच लम्बे टुकडे से जो कुछ लिखकर दिया वे उनके जीवन के सबसे महत्वपूर्ण और कष्टदायक शब्द थे। उनके जीवन की सबसे कष्टप्रद रहस्यमयी प्रतिक्रिया थी। वे पांच बापू के लिखे पुराने लिफाफे माउंटबेटन ने आने वाली पीढ़ियों के लिए ब्रिटिश संग्रहालय में संरक्षित कर दिये। बापू ने लिखा "मेरी पूरी आत्मा इस विचार के विरुद्ध विद्रोह करती है कि हिन्दू और मुसलमान दो विरोधी मत और संस्कृतियाँ हैं। ऐसे सिद्धांत का अनुमोदन करना मेरे लिए ईश्वर को नकारने के समान है।''
Gandhi Darshan - गांधी दर्शन
4 जून 2025