भोजपुरी के आदि कवि , कबीर दास जी के जयंती प बेर बेर नमन ।
कबीर के साहित्य के अध्ययन लगभग सब केहू कइले बा , बाकिर कबीर के भाषा के अध्ययन पुरहर रुप से शायदे केहू कइले होइ। दु चार पाना के जे भी अध्ययन कइले बा उ बेमेल भाषा / खिचड़ी / सधुक्कड़ी कहले बा आ जब आधुनिक भारत के जनम भइल त कबीर के भाषा के हिन्दी बतावल गइल ।
बेमेल भाषा , खिचडी भा सधुक्कड़ी भाषा के बात बुझाता बाकिर हिन्दी कवना आधार प कहल गइल एकर कवनो आधार नइखे । बेमेल भा खिचड़ी भा सधुक्कड़ी के माने कि क गो भाषा एक संगे । जाहिर बा कबीरदास अपना समय के धाकड़ गुरु रहले , घोषित ना आधिकारिक ना , अपना ज्ञान के वजह से गुरु रहले । कहे के माने इ बा कि कबीर से सीखे खातिर कइ जगह से लोग आइल आ उनुकर चेला बनल लो । जाहिर बा मय चेला लो बुझल लो कबीर के भाषा में बाकि जब उहे चीझू आगे परी बढल त केहू मे राजस्थानी जुड़ल केहू में ब्रज त केहू में पंजाबी त केहू में अवधी त केहू में हरियाणवी त केहू मे कुमाँयुनी आदि ।
बोली हमरी पुरब की , हमें लखे नहीं कोय ।
हमके तो सोई लखे ,धुर पुरब का होय ॥
रुचिकर बात बा कि एह दोहा के भी माने कतने साहित्यकार लो अपना अपना हिसाब से कइल । माने पुरब के माने का का निकालल एकर गिनती नइखे । असल में कबीरदास साहित्य जगत के मधु हवे आ साहित्यकार लो माछी । खैर हम निष्कर्ष ना निकालब कि कबीर के भाषा का ह , बाकि अतना तई बा आ एह बात के सिक्ख धर्म भी मनले बा कि कबीर के भाषा भोजपुरी ह , आ कबीर के भोजपुरी के आदिकवि के रुप में देखल जा सकेला । जदि कबीर के मोडिफाइड दोहा छन्द आ साखी आदि में कुछ अंश के छोड़ दिहल जाउ त लगभग मय के मय भोजपुरी में बा , उहो तब जब ओरिजनल होखे । फलानवा शर्मा आ चिलानवा दुबे भा फलानवा शुकुल उपधिया आदि के मुखारविंद आ लिखाड़विंद से जवन निकलल बा उ बस हिन्दी खाति अलगा से उपटल प्रेम के कारण निकलल बा ।
चली हमनी के बोलला से कुछ होखे वाला नइखे , जेकरा करेजा मे जवन बइठा दिहल बा उ जम्ह के दीया मतिन फफा के जरत बा । तबो , कबीर के पढत घरी , ज हाली त हाली कुछ नया जाने के मिलेला ! जइसे अब हई गीत देखी, दुर्गाशंकर प्रसाद जी कहत बानी कि जंतसार के राग ह । जंतसार के राग , जानकार आदमी एह प ढेर बताई बाकि जंतसार मे , एगो मेहरारु गीत कढावे ली , फेरु समूह में ओह के रिपीट कइल जाला , हर लाइन के अंतिम वाक्य में रेघारी पारल यानि कि घींचल जाला आ एह में उ मेहरारु ना गावेली जे कढवले रहेली ।
कबीरदास रहस्यवाद के साहित्यकार रहले , बुझौव्वल जइसन साहित्य के रचना कइले , यानि कि कबीर के बात बुझे खाति रउवा कबीर के लेखा सोचे के परी ।
त कबीरदास जी के एगो जंतसार के देखल जाउ - जंतसार में निर्गुण !
सुरति मकरिया गाड़हु हो सजनी - अहे सजनी ।
दुनो रे नयनवाँ जुअवा लखहु रे की ॥
मन धरु मन धरु मन धरु हे सजनी - अहे सजनी ।
अइसन समइया फिरि नहिं पावहु , रे की ॥
दिनदस रजनी हे सुख करु सजनी - अहे सजनी ।
एक दिन चांद छिपइहनि - रे की ॥
संगहि अछत पिय भरम भुलइलों - अहे सजनी ।
मोरे लेखे पिया परदेसहिं रे की ॥
नव दस नदिया अगम बहे सोतिया - अहे सजनी ।
बिचहिं पुरइन दल लागल , रे की ॥
फूल इक फूलले अनूप फूल सजनी - अहे सजनी ।
तेहि फूल भवँरा लोभाइल - रे की ॥
सब सखि हिलमिल निज घर जाइब - अहे सजनी ।
समुद लहरिया समाइब रे की ॥
दास कबीर यह गवलें लगनियाँ हो - अहे सजनी ।
अब तो पिया घरवा जाइबि - रे की ॥
कबीरदास के अधिकतर रचना भोजपुरी में बा , कबीर के सर्वोत्तम रचना निर्गुण ह । कबीरदास निर्गुण में सोहर लिखले बाडे , जंतसार लिखले बाडे निर्गुण के भाव में क गो पारम्परिक गीत लिखले बाड़े । एह सबके अलावा निर्गुण के भाव में निर्गुण लिखले बाडे । निर्गुण के भाव में बिदाई गीत करेजा काढे वाला होला जवनन से लगभग मय भोजपुरिया समाज के परिचय बा । नीचे दिहल गीत निर्गुण के भाव में ही बा , जवना में शुरु में विरह , फेरु सोहर , बाद में खेलौना आ अंत में समर्पण के भाव बा ।
छतिया से उठेली दरदिया पिया के जगाव बारी हो ननदी ।
सैंया मोहे सुते ए राम प्रेम के अटरिया ।
खोल ना केवरिया ए राम पुछी दिलवा के बतिया , बारी हो ननदी ।
आधी-आधी रतिया ए राम, धरमवा के बेरवा ।
जमले होरिलवा धगरिनि बोलाव बारी हो ननदी ॥
सब अभरनवा ए ननदी बान्हि ल ना मोटरिया ।
समुझि-समुझि के डेगवा डाल बारी हो ननदी ॥
बाड़ा ए सुदिनवा ए जमले होरिलवा ।
अझुरल केसिया सवार बारी हो ननदी ॥
दास कबीर ए राम गावे पद निरगुनवा ।
हरि के चरनिया अब चित लावहु रे ननदी ॥
बुझौव्वल, कहाउत से भरल दर्शन आ रहस्यवाद के अदभुत परतोख मिलेला कबीर दास के रचनन में । खास क के कबीर के गेयता वाला हर रचना के आधार भोजपुरी बड़ुवे ।
पागल कहेला ना रे लोगवा पगल कहेला ना,
हम ता नैहर के बनि रसिलि कि लोगवा पागल कहेला ना।
बारह गज के चोलि सिलवइनी, साठ गज के साड़ी,
तापर लोगवा मुड़ मुड़ देखे , जईसे बदन उघारि,
कि लोगवा पागल कहेला ना।
डोलिये में अइनि डोलिये मेंं गइनि, डोलिये मे रह गइले पेट,
सासु जे से कभी नाहिं बोलनी, बलमा से ना कभी भेंट,
कि लोगवा पागल कहेला ना।
कहत कबिर सुनो भाई साधो ,ये पद है निरबानि
जे येहि पद के अर्थ लगावे,वोहि पुरुस है ग्यानि..
कबीर के कुछ गीत जवन 600 बरिस बादो ओतने मारक, सामयिक आ सटीक बा, जे तब रहे -
1- मन न रँगाये रँगाये जोगी कपड़ा
मन न रँगाये रँगाये जोगी कपड़ा।। टेक।।
आसन मारि मंदिर में बैठे, नाम छाड़ि पूजन लागे पथरा।।
कनवां फड़ाय जोगी जटवा बढ़ौले, दाढ़ी बढ़ाय जोगी होइ गैले बकरा।।
जंगल जाय जोगी धुनिया रमौले, काम जराय जोगी होइ गैलै हिजरा।।
मथवा मुड़ाय जोगी कपड़ा रंगौले, गीता बाँचि के होइ गैले लबरा।।
कहहि कबीर सुनो भाई साधो, जम दरबजवाँ बाँधल जैवे पकरा।।
2-कौन ठगवा नगरिया लूटल हो
कौन ठगवा नगरिया लूटल हो।। टेक।।
चंदन काठ कै वनल खटोलना, तापर दुलहिन सूतल हो।।
उठो री सखी मोरी माँग सँवारो, दुलहा मोसे रूसल हो।।
आये जमराज पलंग चढ़ि बैठे, नैनन आँसू टूटल हो।।
चारि जने मिलि खाट उठाइन, चहुँ दिसि धू-धू उठल हो।।
कहत कबीर सुनो भाई साधो, जग से नाता टूटल हो।।
3- तोर हीरा हिराइल बा किंचड़े में
तोर हीरा हिराइल बा किंचड़े में।। टेक।।
कोई ढूँढे पूरब कोई पच्छिम, कोई ढूँढ़े पानी पथरे में।।
सुर नर अरु पीर औलिया, सब भूलल बाड़ै नखरे में।।
दास कबीर ये हीरा को परखै, बाँधि लिहलैं जतन से अँचरे में।।
4- का ले जैबो, ससुर घर ऐबो
का ले जैबो, ससुर घर ऐबो।। टेक।।
गाँव के लोग जब पूछन लगिहैं, तब तुम का रे बतैबो ।।
खोल घुंघट जब देखन लगिहैं, तब बहुतै सरमैबो ।।
कहत कबीर सुनो भाई साधो, फिर सासुर नहिं पैबो ।।
5- कँवल से भँवरा विछुड़ल हो, जहँ कोइ न हमार
कँवल से भँवरा विछुड़ल हो, जहँ कोइ न हमार ।।
भौंजल नदिया भयावन हो, बिन जल कै धार ।।
ना देखूँ नाव ना बेड़ा हो, कैसे उतरब पार ।।
सत्त की नैया सिर्जावल हो, सुकिरत करि धार ।।
गुरु के सबद की नहरिया हो, खेइ उतरब पार ।।
दास कबीर निरगुन गावल हो, संत लेहु बिचार ।।
साभार - रवि प्रकाश सूरज, महेश शाह, नबीन कुमार आदि !आखर।