Ram Naval Mishra

‘अदहने हवे जिनगी’

रामनवल मिश्र ‘नवल’, गोरखपुर जनपद के कवि हईं। ‘कछार’ के कवि। सही मायने में किसान कवि। शतायु साहित्यकार रामदरश मिश्र जी के बड़ भाई। रामदरश जी के लेखकीय आभा में ‘नवल’ जी के मकबूलियत कहीं हेरा गइल। बाकिर उहाँ के बहुत समर्थ कवि रहनी। मानवीय संवेदना, मनोभाव के बहुत महीनी के साथे उहाँ के दर्ज कइले बानी। गँवई जिनिगी के सूक्ष्म अनुभूति उहाँ के रचना में जीयतार बा। मनई के मनोभावन के प्रामाणिक चित्रण भइल बा। संगे-संग गँवई भारत के दुख, दर्द, तकलीफ आ आशा के बीच संतुलनो बा। ‘नवल’ जी के साहित्यिक अवदान, गँवई जिनिगी के माटी के सोन्ह खुशबू आ ओकरे में रचल-बसल जीवन संघर्ष आ उम्मेद के भी प्रतीक बा। गाँव-गिराँव कऽ गोद में पलत जीवन कऽ सच्चाई भी उजागर भइल बा। उहाँ के रचना संसार में गँवई परिवेश कऽ जीवंत छवि—खेत, खलिहान, मेहनतकश किसान आ उनकर अनकही व्यथा—सहजता से उभरेला। ‘नवल’ जी जिनिगी के संघर्ष, दुख के खाली पीड़ा के रूप में ना, बलुक जिनिगी कऽ गहन अनुभूति के रूप में परोसले बाड़न। जब रउआ उहाँ के सृजन संसार, कविता से गुजरऽब तऽ रउआ एकर अनुभव होई। उहाँ के कविता, पाठक के आत्मचिंतन बदे प्रेरित करेले। उम्मेद कऽ किरण भी बिखेरेले। इ बतावले कि कठिनाई के बादो जिनिगी संभावना से भरलऽबिया। नवल जी कऽ भाषा सरल, प्रवाहमयी आ भावना से ओत-प्रोत बा। पाठक के हृदय के सहजे छुएले। उहाँ कऽ कविता खाली साहित्यिक कृति भर नइखे, सामाजिक यथार्थ आ मानवीय संवेदना का दर्पण भी हऽ। सब लोग भोजपुरी से कुछ लिहले बा, ‘नवल’ जी जइसन कवि, भोजपुरी के बहुत कुछ दिहले बा। नया बिम्ब। मुहावरा। बावजूद एकरे उहाँ के गोरखपुर मंडल से बहरि के लोग खातिर ‘अनचिन्हारे’ रहनी। उहाँ पऽ बहुत चर्चा नाहि भइल। हालाँकि चर्चा-परिचर्चा होखे के चाहत रहल हऽ। आजु गैरखेमाबाज कवियन के शृंखला के 21वीं कड़ी में ‘नवल’ जी के एगो रचना—‘अदहने हवे जिनगी’ पऽ बात होई। फिलहाल रउआ एह रचना के तनिका देखीं—
‘मोरे बदे बनि गै लवरि क चिनगी
परि गै खदकते अदहने हवे जिनगी

आस अगियारी अस आगि में जरेला
साँस साँस करजा क गड़हा भरेला
पनके न देला खोंट लेत सब साग नियर
हम तऽ हो गइली रहिलवा कऽ फुनगी

तीर नियर लागि जाला केहू के बतिया
दिन क न चैन ना आवे नीनि रतिया
चाकी अस पाथर भइलि बाटे छतिया
दरि लऽ केराव चना उरिद मूँङ भिनगी

गइलीं भुजाइ जइसे भउरा क गंजी
सपना ह भइल बा रहरि जइसे बंझी
साधि हवे भइलनि गुलरिया क फूलवा
भागि मोर भूसी जस कहिया ले सुनगी

हाल त उहे बा जस हवे मधु माछी
मरि मरि के सिरजेले मधु दिनो राती
चाटे खाये पाये ना दिखाइ के लुआठी
काटि मधु छतवा क लेत पंच बानगी’

‘नवल’ जी कऽ इ कविता गाँव के मनई के जिनिगी के कठोर सच्चाई के सोझा लावऽतिया। ‘कछार’ के लोगन के रोज़मर्रा के जद्दोजहद अउर उनका जीवटता के संवेदना के साथे बयान भइल बा। कविता कऽ भाषा आ शैली में बोलचाल के परंपरा के साफ छाप बा। इ आत्म-संवाद के लोक-संवाद में बदल देता। एकर बनावट आसान होखे के बावजूद असरदार बा। गँवई जिनिगी के आत्मअनुभव के स्तर पर पेश कइल गइल बा। कविता के पहिलका पंक्ति से ही साफ हो जाई कि कवि अपने आसपास के कठिनाई के गहिराई तक महसूस करऽता—

‘मोरे बदे बनि गइल लवरि क चिनगी
परि गइल खदकते अदहने हवे जिनगी’

नवल जी, एहिजा जिनिगी को ओही अवस्था के चित्रित कइले बाड़न, जहवाँ बाहरी परिस्थिति भा दबाव पहिले से कमजोर पड़ गइल मनई के अउर तेजी से खत्म करे के कोशिश करऽता। इ परिस्थिति सामाजिक, आर्थिक भा भावनात्मक दबाव कुछुओ हो सकऽता। गरीबी, शोषण भा मानसिक तनाव। मनई कऽ अउर गहिराह अंधेरा में धकेल देला। ‘नवल’ जी कऽ इ पंक्ति खाली व्यक्तिगत पीड़ा तक सीमित नइखे। समाज के ओह वर्ग के व्यथा भी दर्शावऽतिया, जवन आर्थिक तंगी, सामाजिक उपेक्षा आ मानसिक दबाव में जीयऽता।

इ कुछ ओइसने दृश्य बा जहवाँ जिनिगी, लउरी कऽ चिनगारी बन गइल बिया। अचके चूल्ह से छिटक कऽ लागल होखे। इ चिनगारी छोट बिया बाकिर खतरनाक बिया। अइसन लागऽता कि ऊ सब कुछ जला के राख कर दिहलस। एहिजा ‘खदकते’ आ ‘अदहने’ जइसन शब्द जलन आ तबाही के तीव्रता देखावऽता। ‘नवल’ जी जिनिगी के एगो अइसन अप्रत्याशित आ दुखद हालत से जोड़त बाड़न, जहवाँ छोट-मोट घटना (चिनगारी) बड़ नुकसान के कारण बन जाले। इ अनिश्चितता आ कष्ट मनई के लाचार, बेबस बान देले। कवि के कहनाम बा कि जिनिगी ‘अदहन’ (खौलऽत पानी जइसन) बा, जे बिना कवनो चेतावनी के जरावऽतिया। अचानक आ बिना सोचे-समझे दुख, जलन भा तबाही ले आवऽतिया। अइसन अप्रत्याशित घटना, मनई के तइयार होखे के मौका नइखे देत। एगो अइसन आग, जे अचके भड़क उठत बा आ सब कुछ बदल देत बा। कवि के इ नजरिया जिनिगी के नाजुकपन आ ओकरे अप्रत्याशित चुनौती के देखावऽता।

‘नवल’ जी, एहिजा साधारण गँवई जिनिगी से लिहल गइल एगो दृश्य (चूल्हा आ अदहन) चुनिके गहिराह दार्शनिक आ भावनात्मक अर्थ व्यक्त कइले बाड़न। इ पंक्ति पाठक के इ सोचे पऽ मजबूर करऽतिया कि का समाज आ परिस्थिति वाकई अतना क्रूर हो सकऽतिया कि उ केहु कऽ जीवन-इच्छा के ही खत्म कर दे।

ओहिजे ‘लवरि क चिनगी’ के चित्रण गाँव के जिनिगी के उहे कठिनाई के सोझा लावऽता, जहाँ छोट-छोट आशा भी कठिनाई के भट्ठी में जलिके राख हो जाला।

‘आस अगियारी अस आगि में जरेला
साँस साँस करजा क गड़हा भरेला’

एहिजा कवि अपना सपना-आशा के आगि में जरे आ कर्ज के बोझ से दबल जिनिगी के दुख के बयान करऽता। ‘अगियारी’ आ ‘गड़हा’ जइसन शब्द गाँव के परिवेश के चुनौती, आर्थिक तंगी आ सामाजिक दबाव के उजागर करऽता। एहिजा कविता के भाव-भूमि महज निजी भर नइखे बलुक समुदाय के स्तर कऽ पीड़ा के भी प्रतिबिंबित करऽता।

कविता में कछार के लोगन के जिनिगी आ उनकर संघर्ष खास तौर से उभरत बा। कछार, नदी के किनारा के उपजाऊ इलाका हऽ। तिलहन आ रवि के फसल ओह माटी पऽ खूब उपजेला। ओहिजा के लोगन के जिनिगी प्रकृति के अनिश्चितता आ आर्थिक कमी से जूझत बीतेला—

‘पनके न देला खोंट लेत सब साग नियर
हम तऽ हो गइली रहिलवा कऽ फुनगी’

एह लाइन में कवि के जोर एही बात पऽ बा। मेहनत के बावजूद जिनिगी के बुनियादी जरूरत पूरा नइखे होत। ‘खोंट लेत सब साग नियर’, लोग पनके नइखे देत। साग नियर खोंट लेता। जेकर मन करऽता, उहे तुड़लेता। ‘रहिलवा कऽ फुनगी’ में शारीरिक आ मानसिक थकान के बोध होता। एहिजा कविता के अनुभूति गहिराह आ मार्मिक बा। कछार के लोगन के रोज़ के जद्दोजहद सोझा आवऽता। कवि के इ बयान महज उनका निजी तकलीफ के ही नइखे दिखावऽत, समुदायिक पीड़ा के भी व्यक्त करऽता। जवना से उ एकरूप बा।

ओहिजा कविता के शिल्प एकर बड़वर ताकत बा। ‘नवल’ जी, खाँटी शब्दन कऽ इस्तेमाल कइल बाड़न, जे कविता के जीवंतता देता।

‘तीर नियर लागि जाला केहू के बतिया
दिन क न चैन ना आवे नीनि रतिया’

एहिजा मानवीय संवेदना बहुत प्रभावी तरिका से व्यक्त भइल बा। ‘तीर नियर’ आ ‘बतिया’ जइसन शब्द लोक-भाषा के सहजता के दिखावऽता। कविता के पाठक के करीब लावऽता। कविता के लय आ तुकबंदी भी असरदार बा। हर पंक्ति में एगो भीतरी संगीतमयता बा। बोलचाल के परंपरा के खासियत कऽ उजागर करऽता। इ शिल्प, कविता के सुने में मधुर बनावऽता। एके भावनात्मक असर के गहिराह करऽता। एहिजा जटिल शब्दन के बजाय आसान आ सहज ढंग से बात कहाइल बा। इ एकरे ताकत के बढ़ावऽता।

ओहिजे एह कविता में इस्तेमाल भइल बिम्ब बहुते जीवंत आ ताकतवर बा। ‘चाकी अस पाथर भइलि बाटे छतिया / दरि लऽ केराव चना उरिद मूँङ भिनगी’ में जिनिगी के कठोरता के चक्की के पत्थर से तुलना कइल गइल बा। इ बिम्ब गाँव के जिनिगी के ओइसने दुख के दिखावऽता, जे हर दिन मेहनत में खप जाला। ‘केराव चना उरिद मूँङ भिनगी’ के इस्तेमाल मुहावरा के रूप में भइल बा। छाती पऽ मूंग दरल बड़ा मशहूर मुहावरा हऽ। मूँग दरे के ओही प्रक्रिया के जेकरे छाती पऽ इ दरल जाता, ओकर पक्ष भा भाव एह लाइन में महसूस कइल जा सकऽता। भोक्ता के पीड़ा एहिजा द्रष्टा सीधे-सीधे महसूस करऽता। इ कविता के एकरे परिवेश से जोड़ऽता।

‘गइलीं भुजाइ जइसे भउरा क गंजी
सपना ह भइल बा रहरि जइसे बंझी’

एहिजा कवि, अपने जिनिगी के तमाम कष्ट, परेशानी झेले के बारे में बतावऽता। एह क्रम में कइसन अनुभव होता, ओकरे के अलाव में भूजल सकरकंद के रूपक से समझल जा सकऽता। जीवन के जद्दोजहद में उनका सपना के का दशा होता? उ खुदे बतावऽताड़े। उनकर सपना के उहे दशा होता, जइसे कवनो ‘रहरी के बंझा पौधा’ होखे। खूब हरियर। खूबे विस्तार। बाकिर ओकरे में फूल नइखे धरऽत, रहरी कऽ छेमी कहाँ से लागी? ‘बँझा रहर’ के जरिए बयान कइले बाड़न। इ बिम्ब कविता के दृश्यात्मकता देता। पाठक के मन में गहिराह छाप छोड़ऽता। कवि के असल ताकत एही में बा। ऊ रोज़मर्रा के चीज आ प्रकृति के तत्व से भावना के जोड़े में सक्षम बाड़न। इ कविता के खासियत के उजागर करऽता।

ओहिजे कविता के अनुभूति गहिराह आ सार्वभौमिक बा। बतौर बानगी रउआ एह लाइन के तनिका देखीं—

‘साधि हवे भइलनि गुलरिया क फूलवा
भागि मोर भूसी जस कहिया ले सुनगी’

कवि अपना साध या मन के चाहत के बारे में बतावल चाहत बाड़न। उ गूलर के फूल से तुलना करत बाड़न। ‘पिया भइले गुलरी के फूल।’ उनकर साध भी ‘गुलरी के फूल’ हो गइल बा। गूलर के फूल लगभग अदृश्य होखेला। लोक धारणा बा कि अगर ‘गुलर के फूल’ मिल जायी, तो सब साध पूरा हो जायी। पर, इ अप्राप्य बा। मिलबे ना करी। ओहिजे ‘भूसी’ के इस्तेमाल कवि के मनोदशा के दर्शावऽता। भाग्य के फल मिले के कवनो उम्मेद नइखे। लगभग निराशा के स्थिति बा। एहिजा आत्म-संवाद के शैली में अपनावल गइल बा। इ पाठक के भी आत्म-चिंतन खातिर प्रेरित करऽता। कवि के इ पीड़ा खाली निजी नइखे। उ समुदायिक भी बा। उ अभाव आ उपेक्षा में जियत बा। कविता के इ अंश ओही संवेदनशीलता के दिखावत बा, जे ‘नवल’ जी के रचना के पहचान हऽ। उहाँ के अनुभूति में गहराई बा। इ पाठक के जिनिगी के सच्चाई से जोड़ऽता। एके कठोरता के महसूस करे खातिर मजबूर करऽता।

‘हाल त उहे बा जस हवे मधु माछी
मरि मरि के सिरजेले मधु दिनो राती
चाटे खाये पाये ना दिखाइ के लुआठी
काटि मधु छतवा क लेत पंच बानगी’

एहिजा ‘नवल’ जी, मधुमक्खी के जरिए मेहनतकश लोगन के हालत के चित्रित कइले बाड़न। मधुमक्खी के मेहनत आ ओकर शोषण जिनिगी के बड़हन सच्चाई के उजागर करऽता। ‘पंच बानगी’ के इस्तेमाल सामाजिक ढाँचा आ शोषण के तरफ इशारा करऽता। मेहनत के फल मेहनत करे वाला के नइखे मिलऽत। एहिजा कविता के परिवेश के बारीकी से उकेरऽल बा। पाठक के सोझा कछार के लोगन के जिनिगी जीवंत हो उठऽता। इ परिवेश कविता के मूल जड़ से जोड़ले राखऽता। एकरे भावनात्मक असर के बढ़ावऽता।

असल में इ कविता के आजु के संदर्भ भी खास बा। भले इ गाँव के जिनिगी के कठिनाई के चित्रण करत बा, बाकी आजु के समय में भी प्रासंगिक बा। गाँव-शहर के बँटवारा आ आर्थिक असमानता आजो समाज के बड़ चुनौती बा। ‘नवल’ जी, एह कविता के जरिए ओह लोगन के आवाज़ के अभिव्यक्ति दिहले बाड़न, जे के मुख्यधारा के साहित्य में अक्सर अनदेखा कऽ दिहल जाला। इ जिनिगी के सच्चाई से रूबरू करावऽतिया आ सामाजिक संवेदना के प्रति जागरूक करऽतिया। कवि के इ कोशिश कि ऊ अपने समय के सच्चाई के शब्दन में ढाल सकें, कविता के कालातीत बनावऽता। खाली अपने समय के बात नइखे करत, बलुक आजु के संदर्भ में भी ओतने सार्थक बा।

कविता के खासियत एकरे सच्चाई आ भावनात्मक गहराई में बा। ‘नवल’ जी गाँव के खाली देखले नइखन, बलुक उ जियले बाड़न। एही से उहाँ कऽ रचना में गाँव के जिनिगी बारीकी से समाइल बा। ‘अदहने हवे जिनगी’ में गाँव के जिनिगी के कठोरता, संघर्ष आ जीवटता के संवेदना के साथ परोसाइल बा। कवि के इ ताकत कि निजी अनुभव के सामाजिक संदर्भ में ढाल सके, उहाँ के रचना के खास बनावऽता। इ कविता खाली एगो रचना भर नइखे, बलुक एगो असल अनुभव बा जे पाठक के कछार के ओही जिनिगी से जोड़ऽता, जे कवि खुद जियले बा। एकर भाव-भूमि में गहिराह पीड़ा बा। साथे-साथ एगो अटूट जीवटता भी बा, जवन गँवई जिनिगी के असल पहचान हऽ।

पुनश्च — अगर रउआ रामनवल मिश्र जी के रचना के पढ़े चाहतानी तो सर्वभाषा प्रकाशन से छपल बा।
Aakhar se

Post a Comment

0 Comments
* Please Don't Spam Here. All the Comments are Reviewed by Admin.