Poet Triloki Nath Upadhyay

‘पतिया रोई-रोई ना, लिखावे रजमतिया’

गाँव-भडसार पो. सहजनवा, जिला गोरखपुर के रहनियार त्रिलोकीनाथ उपाध्याय जी, भोजपुरी के धाकड़ कवि रहनी।1970 से 90 तक काव्य मंचन पर उहां के बड़ा ठसक रहे। उहाँ के रचना ‘रजमतिया के पाती’ के भोजपुरी साहित्य में आपन खास मुकाम बा। अपने समय के सामाजिक, सांस्कृतिक आ आर्थिक हकीकत, बहुते जियतार रूप में परोसाइल बा। एह में लोकमन आ संवेदना के बहुत महिनी के साथे पिरोवल-गूँथल गइल बा। संभवत: इहे कारण बा कि इ गीत, अपने दौर में ख़ाली गीत ना रहि के सामूहिक अनुभव के प्रतीक बन गइल। सहजता, लयबद्धता आ भावनात्मक गहराई के चलते खूब लोकप्रिय भइल। रेडियो से लिहले गाँव के चौपाल तक। एह के ‘लोकगीत’ के दर्जा मिलल। इ रचना त्रिलोकी जी के पहचान बनल। काव्य पाठ खातिर, उहाँ के अगर कहीं जाईं, तऽ श्रोता समूह, एह गीत के सुनावे खातिर अनुरोध करे। आजु गैरखेमाबाज कवियन के शृंखला के 25वीं कड़ी में ‘रजमतिया के पाती’ पऽ तनिका बात होई। ताकि एह रचना आ एकर सामाजिक संदर्भ सोगहक, पुरहर तरीका से उभरे। पहिले रउआ रचना के देखीं—
रोई रोई पतिया, लिखावे रजमतिया
छोटकी गोतिनिया के तनवा के बतिया
पतिया रोई-रोई ना, लिखावे रजमतिया…

सोस्ती श्री चिट्टी रउरा भेजनी तेमे लिखल,
सोरे पचे अस्सी रोपेया, भेजनी तवन मिलल
ओतना से नाही कटी, भारी बा बिपतिया। 
पतिया...

छोटकी के झूला फाटल, जेठकी के नाहीं,
बिटिया सेयान भइल, ओकरो लूगा चाही,
अबगे धरत बाटे कोंहड़ा में बतिया, 
पतिया ...

रोज-रोज मंगरा मदरसा जाला,
एक दिन तुरले रहे मौलवी के ताला,
ओकरा भेंटाइल बा करीमना संघतिया। 
पतिया...

पांडे जी के जोड़ा बैला गइलेसऽ बिकाइ,
मेलवा में गइले तऽ पिलवा भुलाइल,
चार डंडा मरले मंगरू, भाग गइल बेकतिया। 
पतिया...

जाड़ा के महीना बा, रजाई लेम सिआइ,
जाड़ावा से मर गइल दुरपतिया के माई,
बड़ा जोर बेराम बा भिखारी काका के नतिया। 
पतिया...
 
कबरी बकरिया रात-भर मेंमिआइल,
छोटका पठरुआ लिखीं कतना में बिकाई,
दुखवा के परले खिंचत बानी जँतिया। 
पतिया...’
 
इ गीत के केंद्र में बिया, रजमतिया। एगो मेहनतकश गँवई मेहरारू। उनकर पति, परदेस में बाड़न। घर-परिवार के मय जिम्मेदारी रजमतिये निबाहतिया। एही रजमतिया के व्यथा-कथा के त्रिलोकी जी अपना   एह गीत के आधार बनवले बानी। ‘रजमतिया के पाती’ गँवई भारत, खासकर पूर्वांचल के गाँव के सामाजिक यथार्थ के सजीव चित्र परोसऽतिया। एह गीत के हर पंक्ति में गँवई जिनिगी के संघर्ष, सामाजिक रिश्तन के ऊष्मा, आर्थिक अभाव के मार झलकता। एहिजा ‘रजमतिया’ के दुख बा। व्यथा-कथा बा। ‘छोटकी गोतिनिया’ के ‘ताना’ मरले से उबिया के उ अपने पति के नामे एगो चिट्ठी लिखावऽतिया। चिट्ठी ना कह के एकरा के ‘डोजियर’ कह सकऽतानि। का भइल, कब भइल, कइसे भइल, का हो रहल बा, जइसन सवाल पऽ कवनो दक्ष रिपोर्टर के दृष्टि रजमतिया के लगे बा। लिखी ना रिपोर्ट… खैर, अपढ़ बिया। चिट्ठी लिख भी बाँच नइखे सकत। नतीजा एगो आन मनई से चिट्ठी लिखावऽतिया। लिखवाने की मजबूरी के चलते रजमतिया के आपन मन के बात, एगो गैर मनई के खोल के-फ़रिया के कहे भा दिखावे पड़ता। ऊ गैर आदमी (खुद त्रिलोकी जी भी हो सकत बानी) जब ऊ जमतिया के चिट्ठी लिखकर उठतऽता, तऽ बेचैन हो जाता। उहे बेचैनी के प्रतिफल हऽ, इ गीत।

पाती लेखन के इ शैली भोजपुरी लोकसाहित्य में खूब प्रचलित रहल बा। अंजन जी के भी एगो गीत बा। ऊहां को 62 के लड़ाई के केंद्र में राखि के ओकरा के लिखले रहीं। बहरहाल एहिजा ओह पर चर्चा से विषयांतर होई। भोजपुरी अंचल के मेहरारू, दूर देश (मोरंग देश, पुरुब देश, बंगाल) में रहेवाला आपन पति भा परिजन के सनेसा भेजेली। कारण पूरा भोजपुरिया बेल्ट, माइग्रेशन से पीड़ित रहल बा। मुगलिया काल से पहिले से एह इलाका से व्यापक स्तर भा पैमाना पऽ माइग्रेशन भइल बा। एकर ऐतिहासिक प्रमाण किताबन में दर्ज बा। एह से इ पाती खाली व्यक्तिगत संवादे भर नइखे बलुक मय गाँव के आर्थिक तंगी, सामाजिक रिश्ता आ दैनिक जिनिगी के कठिनाई के दस्तावेज भी बा। रचना के परिवेश, गँवई भारत के बा। खासकर पूर्वांचल के उ गाँव, जहाँ जिनिगी के हर छोट-बड़ घटना सामूहिकता आ रिश्ता-नाता के इर्द-गिर्द घूमेला। एहिजा के समाज मेहनतकश होखेला। बाकिर संसाधन के कमी, आर्थिक अभाव, शासन व्यवस्था के उपेक्षा, बाढ़-सूखा जइसन प्राकृतिक चुनौती एकर नियति बन गइल बा। गीत के भावभूमि दुख, विडंबना आ करुणा से बनल बा। फिर भी एकरे में एगो सूक्ष्म हास्य आ जीवटता भी दिखी, जे पुरबिया लोकमानस के खासियत हऽ। इ गीत ना तऽ अतिशयोक्ति से भरल बा, ना भावुकता में डूबल; इ जिनिगी के सच्चाई के परोसत भा बतावऽता। पाठक/श्रोता संभवतऽ एही चलते, एह रचना से  जुड़ऽत होइहें।

असल में इ गीत खाली रजमतिया के आपबीती नइखे, बलुक हाशिये पऽ छूट गइल, जे आभाव में जीयता अइसने वंचित तबका, समाज के प्रतिनिधि आवाज बा। गीत के केंद्रीय विषय आर्थिक तंगी बा। ‘सोरे पचे अस्सी रोपेया, भेजनी तवन मिलल, ओतना से नाही कटी, भारी बा बिपतिया’ से साफ़ तौर पर जाहिर होता। रजमतिया के पति जवन अस्सी रुपया भेजेलेबा, उ घर-परिवार के जरूरत पूरा करे खातिर नाकाफी बा। अस्सी रुपया ओह समय (1960-70 के दशक) में छोट-मोट खर्च खातिर ठीके भा पर्याप्त होइत। पर, इ गीत बतावऽता कि विपत्ति अतना बड़ बा कि इहो धनराशि कम पड़ऽता। असल में ‘रजमतिया के पाती’ के इ स्वर हमनी के एगो आत्मीय आ संवेदनशील परिवेश में ले जाता। इ गीत एगो पाती के माध्यम से लिखल गइल बा।

रजमतिया के पति ‘अस्सी रुपया’ भेजले बा, बहरा से। बाकिर इ धनराशि घर के खर्ची चलावे खातिर नाकाफी बा। नतीजा, रजमतिया अपने पति के नामे चिट्ठी लिखवावऽतिया। गाँव-घर आ परिवार के हाल-चाल बतावऽतिया। 

‘छोटकी गोतिनिया के तनवा के बतिया, 
पतिया रोई-रोई ना, लिखावे रजमतिया।’  

इ गीत के मथेला हऽ। एहिजा से इ गीत के शुरू होता। रउआ कवनो पुरान पाती भा चिट्ठी देखब, तऽ इ जानकारी मिली कि ‘सोस्ती सिरी सर्व उपमाजोग...’ से उ चिट्ठी भा पाती शुरु भइल होई। बाकिर रजमतिया, अतना दुखी बिया कि सबसे पहिले उ अपना छोटकी गोतिनिया के ताना मरले के राम कहानी अपने पति के बतावे चाहतिया। बतावते-बतावते, रोए लागऽतिया। ‘पतिया रोई-रोई ना, लिखावे रजमतिया में’ भावनात्मक दुख झलकते बा बाकिर ओकर संयम आ कर्तव्यबोध के भी पता लागतऽता। इहो मालूम चलता कि उ अपने जिम्मेदारी के समझऽतिया।

‘सोस्ती श्री चिट्टी रउरा भेजनी तेमे लिखल, 
सोरे पचे अस्सी रोपेया, भेजनी तवन मिलल, 
ओतना से नाही कटी, भारी बा बिपतिया।’

रजमतिया के फेर सुधी आवऽता। असलियत के अहसास होता। ओकर रोअल थमऽता। अब उ सुसुकत बतावऽतिया के राउर भेजल पैसा मिल गइल बा। पति के पिछला पाती आ ओकरा में भेजल गइल पैसा के याद दिआवऽतिया। ‘सोस्ती श्री चिट्टी’ में पत्र के औपचारिक शुरुआत के झलकी मिली। भोजपुरी पत्र लेखन के पारंपरिक रुप से राउर परिचय होई। ओहिजे ‘सोरे पचे अस्सी रोपेया’ से रजमतिया के गणितीय क्षमता के बारे में पता लागी। अपढ़ बिया। गिनती-पहाड़ा बहुत नइखे जानऽत। बाकिर हिसाब लगावे के जानतिया। अस्सी रूपिया खतम हो गइल बाकिर आर्थिक तंगी जस के तस बा। ‘ओतना से नाही कटी’ से साफ बा कि विपत्ति बड़ बा, राशि भा धन नाकाफी। विडंबना देखीं। पति बहरा में हाड़-तोड़ मेहनत करऽता। पइसा भेजऽता। तब्बो घर के स्थिति नइखे सुधरऽत। हालाँकि महंगी, बेकारी, जइसन कई गो बाहरी कारण हो सकत बाटे, एकरे मूल में। बाकिर इ अंतरा गँवई जिनिगी के आर्थिक तंगी आ ओकरा से उपजल निराशा के उजागर करऽतिया।

रजमतिया, अपने व्यथा-कथा के एह गीत के माध्यम से बतावऽतिया। कथावाचक माफिक। पर, ओकरे पाती में गँवई भारत के मय मेहरारून के स्थिति के प्रामाणिक चित्रण बा। पति के परदेस रहे पऽ रजमतिया घर के देखभाल करऽतिया। पूरा ज़िम्मेदारी, जवाबदेही के साथे। 
‘छोटकी के झूला फाटल, जेठकी के नाहीं, 
बिटिया सेयान भइल, ओकरो लूगा चाही, 
अबगे धरत बाटे कोंहड़ा में बतिया।’  

एहिजा रजमतिया के मातृत्व आ पारिवारिक चिंता दिखऽता। फिर उ घर के हाल-खबर बतावऽतिया। घर के छोट-छोट जरूरत के जिक्र बा। ‘छोटकी के झूला फाटल’ से पता चलऽता कि तन ढके लायक जरूरी कपड़ा नइखे। जवन बा, तवन फाट गइल बा। बड़की खातिर तऽ उहो नइखे जुरत भा जुटऽत। बिटिया सेयान हो रहल बिया। ओकरो खातिर लुगा चांही। फिर उ खेत-बधार के हाल बतावऽतिया। कोंहड़ा में बतिया धरत बा।

उ बेटी के बढ़त उमर आ ओकर जरूरत (कपड़ा) के प्रति सजग बिया। असल में रजमतिया खाली घरेलू औरत भर नइखे, परिवार के आर्थिक आ सामाजिक जिम्मेदारी निभावे वाली धुरी भी उहे बिया। इ अंतरा परिवार के आर्थिक तंगी के साथ-साथ सामाजिक-परिस्थितगत दबाव के भी रेखांकित करऽता। मसलन, पति बहरा बा। कमाये गइल बा। बाकिर रजमतिया गाँव में रहि के परिवार के जोड़ले-सहेजले-संभलऽले बिया। असल में एहिजा, ओह दौर के लैंगिक विभाजन के झलकी मिली। जहवाँ पुरुष कमाये खातिर बहरा जाए, आ औरत घर संभाले खातिर घरे रहे। बाकिर रजमतिया के आवाज में आत्मविश्वास आ जीवटता बा। एह माध्यम से उनकर सशक्त चरित्र उजागर होता।

परिवार आ गाँव के हर छोट-बड़ खबर के पति तक पहुँचावतो बिया- 
‘रोज-रोज मंगरा मदरसा जाला, 
एक दिन तुरले रहे मौलवी के ताला, 
ओकरा भेंटाइल बा करीमना संघतिया।’

एहिजा रचना के समकाल के बारे में तनिका, अंदाजा लागऽता। रजमतिया पाती, ओह दौर में लिखावऽतिया, जब गाँव में स्कूल ना रहे। ‘मंगरा’ (लइका) मदरसा में पढ़े जाता। बाकिर संगत खराब हो गइल बा। ‘करीमना’ ओकर संघतिया बा। ओकरे संगत में मोलबी साहब के ताला तुरले बा। मंगरू के इ हरकत गाँव के बचवन के शरारत के दर्शावऽता बाकिर संगे-संगे इहो बतलावऽता कि आर्थिक तंगी आ सामाजिक दबाव बचवन के गलत रास्ता पर धकेल सकत बा। एह से गाँव में शिक्षा के सीमित पहुँच आ आर्थिक तंगी से उपजल सामाजिक विचलन के संकेतो मिलऽता। अभाव आ अवसर के कमी गलत राह पऽ ले जा सकऽत बा। रजमतिया के चिट्ठी में मंगरू के जिक्र से साफ बा कि ऊ गाँव के बचवन के भविष्य खातिर चिंतित बिया। बाकिर सामाजिक-आर्थिक परिस्थिति के चलते मुश्किल भा कठिनाई पैदा हो रहल बा।

‘पांडे जी के जोड़ा बैला गइलेसऽ बिकाइ, 
मेलवा में गइले तऽ पिलवा भुलाइल, 
चार डंडा मरले मंगरू, भाग गइल बेकतिया।’

एहिजा राम कहानी आगे बढ़ऽता। गाँव के पांडे जी के बैल बिका गइल बा। मेला में मंगरू के पिलवा (कुकुर) भुला गइल बा। ‘चार डंडा मरले मंगरू, भाग गइल बेकतिया’ में मंगरू के हिंसक स्वभाव मने अपने मेहरारू के पिटाई के बात आवऽता। घरेलु हिंसा के दृश्य एहिजा दिखी। पुरुषवादी वर्चस्व भा मानसिकता के भी झलकी मिली।

त्रिलोकी जी मूलतः हास्य रस के कवि रहनी हऽ बाकिर उहाँ के एह गीत में गाँव के सामाजिक बुनावट के सघन चित्रण बा। जेठकी, छोटकी, बिटिया, भिखारी काका के नतिया, दुरपतिया के माई जइसन उल्लेख परिवार आ समुदाय के रिश्तन के गहराई के दर्शन होत बा। गाँव में हर आदमी एक-दूसरे से जुड़ल बा। एक के दुख पूरा गाँव के दुख बन जाता।

‘जाड़ा के महीना बा, रजाई लेम सिआइ, 
जाड़ावा से मर गइल दुरपतिया के माई,
बड़ा जोर बीमार बा भिखारी काका के नतिया।’

गीत के सबसे करुण हिस्सा, इहे अंतरा बा। सर्दी के महीना में रजाई के जरूरत पड़ी। बाकिर आर्थिक तंगी के चलते इ पूरा नइखे हो पा रहल। ‘जाड़ावा से मर गइल दुरपतिया के माई’ से एगो दूसर परिवार के त्रासदी उभरऽता। ‘भिखारी काका के नतिया’ के बीमारी के जिक्र भी होता। रजमतिया के संवेदनशील व्यक्तित्व के एहिजा पता चलता। उ सबके दुख से दुखी बिया। सहभागी बिया। खाली अपने घर के ना, बलुक पूरा गाँव के व्यथा के व्यक्त कर रहलऽबिया। बा। साँच कही तऽ एह अंतरा में करुणा आ सामाजिक संवेदना के गहरा चित्रण मिली।

‘कबरी बकरिया रात-भर मेंमिआइल, 
छोटका पठरुआ लिखीं कतना में बिकाई, 
दुखवा के परले खिंचत बानी जँतिया।’
  
इ गीत के आखिरी अंतरा हऽ। एही से एकर समापन होता। ‘कबरी बकरिया रात-भर मेमिआइल’ बतावऽता कि ओकरे सोझा कवनो खतरा बा। कवनो हुँडार घूमतऽता, मौक़ा लगते ओकरे के खा-चबा जायी। इ बिम्ब अपने आप में बहुत कुछ कहत भा बतावऽता। ओहिजे ‘छोटका पठरुआ लिखीं कतना में बिकाई’ जइसन पंक्ति गाँव के आर्थिक गतिविधि के बतावऽतिया। पठरू बेचे के पड़ता, ताकि घर-गृहस्थी चल सके। असल में गँवई अर्थव्यवस्था खेती आ पशुपालन पर निर्भर बा। बाकिर मौसमी अनिश्चितता आ बाजार के कमी के कारण संकटग्रस्त बा। रजमतिया के चिट्ठी इहो बतावऽतिया कि गाँव में नकदी के कमी कइसे जिनिगी के हर पहलू पऽ आपन असर डालेले? बाकिर ‘दुखवा के परले खिंचत बानी जाँतिया’ जइसन पंक्ति में अभाव के कारण होखे वाली त्रासदी के महसूस कइल जा सकता। साफ बा कि दुख के बोझ कम नइखे हो रहल। अब जाँत खींचे भा चलावे के पड़ऽता। ताकि कुछ अनाज-पिसान के इंतजाम हो सके। रजमतिया के जिनिगी इ संघर्ष श्रोता के हृदय के छूवे, मानस के झकझोरे में समर्थ बा। सक्षम बा।

रचना के बाह्य पक्ष एकर भाषा, छंद, लय आ संरचना में निहित बा। भोजपुरी के मिठास आ सहजता एह गीत के जान बा। ‘पतिया रोई-रोई ना, लिखावे रजमतिया’ जइसन पंक्ति ना खाली लयबद्ध बा, बलुक एह में एगो खास भावनात्मक गहराई भी बा। एहिजा ‘रोई-रोई’ जइसन शब्द भाव के तीव्र करऽता। असल में एकर संरचना, दोहराव पर आधारित बा। हर अंतरा के बाद ‘पतिया रोई-रोई ना, लिखावे रजमतिया’ के प्रयोग भइल बा। इ खाली लये नइखे बनावऽत, पत्र लेखन के निरंतरता के भी रेखांकित करऽता। अइसन दोहराव लोकगीतन में दिखेला। इ ओकर आपन विशिष्टता हऽ। एही से श्रोता समूह, गीत से जुड़ेला। ओहिजे एह गीत के भाषा में गाँव के माटी के सोन्ह महक बा। ‘झूला फाटल’, ‘कोंहड़ा में बतिया’, ‘मेमिआइल’ जइसन शब्द आ मुहावरा, भोजपुरी संस्कृति के आपन शब्द हऽ। एकरे जरिए पूरा सांस्कृतिक परिवेश के प्रामाणिक चित्रण भइल बा। भाषा बनावटी नइखे। साहित्यिक रूप से अलंकृत भी नइखे। इ भोजपुरी, लोक के आपन भाषाई ताकत आ सामर्थ्य हऽ। जवन सीधा करेजे छुएला।

त्रिलोकी जी के एह रचना के आंतरिक पक्ष एकरे अनुभूति आ संवेदना में निहित बा। एहिजा एगो मेहरारू के व्यथा-कथा बा। जे अपने पति के गाँव के दुर्दशा आ घर के आर्थिक तंगी के खबर दे रहल बिया। बाकिर इ खाली व्यक्तिगत शिकायत नइखे, एहिजा सामूहिक आवाज बा। जब ‘जाड़ावा से मर गइल दुरपतिया के माई’ भा ‘भिखारी काका के नतिया’  के हाल-हालात के बात होता, तब कारूणिक भाव भा रस मिली। उहें जब रजमतिया कहऽतिया कि ‘सोरे पचे अस्सी रोपेया’ भेजे से भी विपत्ति ना कटऽल, तब तनिका हास्य रस दिखी। एहिजा जिनिगी के हर रंग मौजूद बा। दुख, हास्य, संघर्ष आ आशा। गीत के अनुभूति एह अर्थ में सार्वभौमिक बा। खाली एगो गाँव के कहानी नइखे, ओइसन मय समाज के प्रतिनिधि बा, जे अभाव आ मेहनत के बीच जीयऽता।

अइसना में गीत में सामाजिक यथार्थ करुणा, हास्य आ विडंबना के मिश्रण से प्रभावी बनल बा। जाड़ा के महीना बा, रजाई लेम सिआइ, जाड़ावा से मर गइल दुरपतिया के माई जइसन पंक्ति में अभाव के चलते होखे वाली त्रासदी के देखल जा सकऽता। इ श्रोता के हृदय के छूअता। मंगरू के शरारत, पिल्ला भुलाइल, जइसन प्रसंग हल्का हास्य पैदा करऽता। अहिजा लोकजीवन के जीवटता के झलकी मिली। ओहिजे दुखवा के परले खिंचत बानी जँतिया में विडंबना बा, जहाँ रजमतिया के संघर्ष आ दुख के बावजूद ऊ चिट्ठी लिखि के पति से संवाद स्थापित करऽतिया। लोकमानस के उहे खासियत बतावऽता, जवन विपत्ति से लड़े के ताकत देत बा।

रजमतिया के पाती संभवतः 1960 के दशक में रचाइल, जब भारत आजादी के बाद अपने आर्थिक आ सामाजिक ढाँचा के आकार देवे में जुटल रहे। इ उहे समय रहे, जब जमींदारी उन्मूलन शुरू भइल, बाकिर छोट किसान आ मजदूरन के स्थिति में खास सुधार ना भइल। खेती मौसमी अनिश्चितता से भरल रहे आ औद्योगिक विकास के अभाव में पुरुष रोजगार खातिर शहर या दोसरा प्रांतन में पलायन करत रहलन। सोरे पचे अस्सी रोपेया उस समय के आर्थिक स्थिति के दर्शावऽता, जब गाँव में नकदी दुर्लभ रहल। रजमतिया के चिट्ठी ओह दौर के संचार व्यवस्था के कमी के संकेत देत बा, जहाँ पातिए दूरस्थ परिजन से जुड़े के एकमात्र साधन रहे। रजमतिया के पति परदेस कमाए गइल बा, जे ओह दौर के पलायन के सामान्य प्रवृत्ति रहल। इ पलायन खाली आर्थिक ना, बलुक सामाजिक आ भावनात्मक स्तर पर प्रभाव डालत रहे। एकरे चलते गाँव में औरतन पर घर-परिवार संभाले के जिम्मेदारी बढ़ गइल, आ रजमतिया जइसन मेहरारू चिट्ठी के जरिए पति से जुड़ल रहली। इ उहे दौर हऽ जब भारत के आर्थिक विकास में घोर क्षेत्रीय असमानता रहे, आ गँवई क्षेत्र विकास के मुख्यधारा से कटल रहऽ गइल।

याद करीं सभी कि आजादी के बाद, लोकसाहित्य में सामाजिक यथार्थवाद के प्रभाव कइसे बढ़ल। भोजपुरी गीत मनोरंजन से आगे बढ़ि के सामाजिक गीत के माध्यम बन गइल। रजमतिया के पाती ओही दौर के दोसर लोकगीत मसलन बिरहा, कजरी, सोहर के साथ मिलि के गँवई समाज के आवाज राष्ट्रीय स्तर पर ले जाये में योगदान देत रहे। इ समकाल के ओही सांस्कृतिक जागरण के बतावता, जहाँ लोक अपन भाषा आ संस्कृति के जरिए पहचान स्थापित करे लागल रहे।

रजमतिया के पाती भले अपन समय के रचना होखे, बाकिर एकर सामाजिक यथार्थ आजो कई मायने में प्रासंगिक बा। आर्थिक तंगी आ पलायन आजो गँवई भारत के बड़ समस्या भा चिंता बा। भले अस्सी रोपेया के जगह अब डिजिटल भुगतान आ गइल बा, बाकिर गाँव में आर्थिक असमानता आ संसाधन के कमी बनने बा। गाँव आजो विकास के दौर में मूलभूत सुविधा ख़ातिर तरसता। आजो लाखन लोग रोजगार खातिर शहरन के ओर पलायन करते बा आ परिवार गाँव में पीछे रहि जाता। असल में रजमतिया जइसन औरत आजो परिवार आ समुदाय के जोड़े राखे में अहम भूमिका निभावेली। शिक्षा के क्षेत्र में तिनका सुधार भइल बा, संचार व्यवस्था में भी बदलाव बा। अब चिट्ठी ना वीडियो काल पर हाल-ख़बर मिल जात बा। बाकिर गँवई क्षेत्रन में संसाधन आ शिक्षा-स्वास्थ्य के गुणवत्ता के कमी बरकरार बा। मंगरू जइसन बच्चे आजो आर्थिक दबाव या सामाजिक परिवेश के कारण पढ़ाई से वंचित हो सकत बा। सोशल मीडिया के एह दौर में सामाजिक दबाव आ गाँव के सामाजिक ढाँचा के नया रूप में दिखाई देता। अइसना दौर में भी रजमतिया के पाती गँवई भारत के सामाजिक यथार्थ के एगो सजीव दस्तावेज बा, जे आर्थिक तंगी, लैंगिक भूमिका, सामाजिक संरचना आ दैनिक जीवन के चुनौती के प्रामाणिक चित्रण करता। रजमतिया के चिट्ठी खाली एगो औरत के दुख-दर्द ना, पूरा गाँव के संघर्ष आ जीवटता के कहानी बा। आज के संदर्भ में, इ गीत गँवई भारत के ओही चुनौतियन के याद दिलावता, जे समय के साथ रूप बदले बा, बाकिर अबहिनों मौजूद बा। असल में त्रिलोकी जी के इ रचना लोकमानस, लोककंठ में बसल बिया आ हमारा एह बात के पुरहर यकीन बा कि इ हर काल में गूँजत रही। त्रिलोकी जी के ज़ोर के केहु रचनाकार ना भइल। 

पुनश्च— त्रिलोकी उपाध्याय जी के ना रहले पऽ उहाँ के गीतन के दूगो संग्रह आइल। ‘माटी की महक’। दो भाग में। रमेश बुक डिपो, गोरखपुर से छपल। ओही के भाग एक में एह रचना के एगो दोसर पाठ भी मिलल हऽ। जवना में तनिका पाठातंर बा। संभव बा कुछ जोड़-घटाव भी भइल होखे। कारण ओह में रजमतिया के पति 500 रूपिया भेजता। जब इ गीत लिखाइल रहे, ओह दौर में कवनो मजूर 500 रूपिया भेजत होखे, इ संभव नइखे। एही से हम किताब में छपल गीत के छोड़ के कविताकोश पर मौजूद एह गीत के चुनली हऽ। त्रिलोकी जी के साथे कई मंच पऽ काव्य पाठ करे वाला आचार्य मुकेश जी, चंद्रेश्वर परवाना जी आ गुरुवर इंद्र कुमार दीक्षित जी से सँवचनी हऽ। तस्दीक कइनी हऽ।

Post a Comment

0 Comments
* Please Don't Spam Here. All the Comments are Reviewed by Admin.